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अपापिन्
७४
अपि तु
लपल
अपापिन् (वि०) क्षण निष्पापी, पुण्यात्मा, पापवर्जित। (जयो०
२७/४७) (सम्य० ९८) 'कलङ्कयेन्मज्जनतोऽप्यपापिन्।' अपामार्गः (पुं०) [अप+मृज्+घञ्] अद्धाझारा, एक जड़ी
बूटी, चिचड़ा। अपामार्जनं (नपुं०) [अप+मृज्+ल्युट्] शुद्धिकरण, प्रमार्जन। अपायः (पुं०) [अप+इ+अच्] अभाव, नाश, लोप, हानि,
संहार, विनाश, अदृश्य। "लताङ्गि ते जातु न वास्त्वपायः।" (जयो० १७/२२) उक्ति पंक्ति में अपाय' का अर्थ हानि है। 'केशरेण सार्धं विसृजेयं पादयोर्जिनमुद्रायाः, न सन्तु कुतश्चापायाः। (सुद० ७१) उक्त पंक्ति में 'अपाय' का अर्थ विनष्ट या विनाश है। पापानि वापायभियोगिरन्तः। (जयो० १/८२) अपायस्य प्रत्यवायस्य। (जयो० वृ० १/७२) उसकी थकान से
मेरा मन आकुलता का अनुभव कर रहा है। अपायः (पुं०) अभ्युदय और निःश्रेयस की सांधक क्रियाओं
का विनाशक प्रयोग। अभ्युदय-निःश्रेयसार्थानां क्रियाणां विनाशक प्रयोगोऽपायः। (स०सि०७/९) अपाय को अवाय भी कहते हैं। भाषादि विशेष के ज्ञान से यथार्थरूप जानने का नाम अपाय/अवाय है। दार्शनिक दृष्टि यही कथन किया जाता है कि-यह दक्षिणी युवक है, यह पश्चिमी। अपाययुक्त (वि०) भयभीत, व्यपायि। (जयो० वृ० २/१३५) अपायविचयः (पुं०) धर्मध्यान का एक भेद-यह संसारी जीव
अपने ही किए हुए कुकर्मों के द्वारा किस प्रकार की आपत्तियों में पड़ता है इत्यादि विचार का नाम अपाय विचय है। (समु०० १०३) "सन्मार्गापायचिन्तनमपाविचयः'। (त०वा०९/३६) असन्मार्गापायसमाधानं वा। जिनमत के कल्याणकारक-सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र का चिन्तन अपायविचय है। स्थिति खण्डन, अनुभाग खण्डन, उत्कर्षण
और अपकर्षण का चिन्तन तथा जीवों के सुख-दुःख का विचार करना अपायविचय है। 'अपाय' अनुप्रेक्षा भी है-जिसमें आश्रवद्वारों से उत्पन्न अनर्थों का बार-बार
विचार/अनुचिन्तन किया जाता है। अपार (वि०) सीमा विहीन, पार न करने वाला, असमर्थ
(सुद० २/१६) अपारयन् (वि०) पार को प्राप्त नहीं हुआ, असमर्थ "परिपातुम
पारयश्च सोऽङ्गरुपामृतमद्भुतं दृशो।। (सुद० ३/९) "अपारयन् वेदनयान्वितत्वाच्चिक्षेप ता मूर्ध्नि विधिर्महत्त्वात्। । (जयो० १/५९)
अपार्ण (वि०) [अप+अ+क्त] दूरस्थ, दूरवर्ती, निकटस्थ। अपार्थ (वि०) [अपगतः अर्थः यस्मात्] अकल्याणकर, निरर्थक,
अर्थहीन। शिशोरिवान्यस्य वचोऽस्त्वार्थ। (जयो० २६/७४) अपार्थक (वि०) ०अकल्याणकर, निरर्थक, ०अर्थहीन,
असबद्ध अर्थ। अपार्य (वि०) दुरभिप्रायः। (जयो० १६/६९) अपावरणं (नपुं०) [अप+आ+व+ल्युट] उद्घाटन, गोपन,
लपेटना, छिपाना। अपावर्तनं (स्त्री०) [अप+आ+कृत ल्युट] अपकर्षण, परावर्तन, लौटना। अपावृत्तिः (स्त्री०) [अप+आ+वृत्+क्तिन्] परावर्तन, अपकर्षण,
लौटना। अपाश्रय (वि०) आश्रयहीन, निरवलंब, असहाय। अपाश्रयः (पुं०) शरण, सहारा। अपांशु (वि०) निष्प्रभ, प्रभा हीन, किरण रहित, आभाविहीन।
'तद्योगयुक्त्या निवहेदपांशु"। (जयो० २७/४२) "अपगता अंशवः किरणा यस्मात्तथाभूतं निष्प्रभमित्यर्थः।" (जयो०
वृ० २७/४२) अपासंगः (पुं०) [अप+आ+संज्+घञ्] तरकस। अपासनं (नपुं०) [अप+अस्+ल्युट्] समाप्त करना, हटाना,
फेंकना, दूर करना। अपासरणं (नपुं०) [अप+आ+सृ+ल्युट्] लौटना, दूर हटना,
विदाई। अपासु (वि०) निर्जीव, मृत, मरा हुआ, चेतना शून्य। अपास्त (वि०) विनष्ट, ०क्षयगत गिरी हुई। अपास्तमाल्यं
च्युतयावकाधरं। (जयो० १४/८२) अपि (अव्य०) भी, एवं, पुनश्च, इसके अतिरिक्त, और भी,
तथापि तो भी, बहुधा, प्रायः, संभावना आदि। 'अपि तु फलत्येवेति काकु:।' (जयो० २७/४) 'लावण्याङ्कोऽपि मधुरतनुः।' 'लावण्य का घर होकर भी मधुर है। 'विलसति सर्वतोऽपि मे' अपि इस प्रकार या 'एवं' को व्यक्त कर रहा है। 'नैव जात्वपि स दूषणतायाः' दूषणता का कदाचित् भी लेश नहीं है। आत्मानं सततं रक्षेद् दारेरपि धनैरपि। (जयो० २/४) श्रूयते हस्ति-हन्तापि। (दयो० वृ० ४६) अपि तु भवत्येवेति। (जयो० वृ० ५/१०४) अपिशब्दोऽवच्छेदार्थो वर्तते। (जयो०८७८) शरोऽपि नाम्नाऽवरोऽथ
जीत्या बभूव भूत्याः प्रसरः प्रतीत्या। (जयो० ८/७८) अपि च (अव्य०) और भी। (जयो० अपि तु (अव्य०) और तो, फिर तो।
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