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कलुषः
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कल्पाकल्पं
कलुषः (पुं०) महिष, भैंसा। कलुषपरिणामः (पुं०) संकल्प-विकल्प भाव, अशुभ परिणाम।
(जयो० वृ० १/१११) कलुषी-कृत (वि०) मलिनता, अन्धकारयुक्त। (जयो०१३/९६) कलेवरः (पुं०) शरीर, देह। [कले शुक्रे वरं श्रेष्ठम्] कलोदयः (पुं०) कला का उदय, चातुर्य से परिपूर्ण। कलोदयकरी (वि०) चतुराई करने वाला। 'कलानां
चातुरीणामुदयकरी उन्नतमनकारिणी' (जयो० वृ० २६/१२) कलोदयवत्व (वि०) विकास को प्राप्त कराने वाला।
'अमृगुश्चकलोदयवत्वत' (समु० ७/२८) कल्कः (पुं०) कीट, गंदगी। कल्कनं (नपुं०) [कल्क्+णिच् ल्युट्] मिथ्यापना, प्रतारणा,
धोखा देना, छल। कल्किन् (पुं०) नाम विशेष। कल्प (सक०) देना, प्रदान करना। (जयो० वृ० ७/२८) कल्प (वि०) [कृप्+अच्] उचित, योग्य, सदृश, समान,
श्रेष्ठ, सक्षम, समर्थ, परिणत आदि। सदृश 'मुदिन्दिरामङ्गलदीपकल्प:' (सुद० १/१२) परिणत-'मृणाणकल्पः सुतरामनल्प:' (सुद० १०८) विधि 'विनिर्वहत्यात्त कलत्र-कल्पम्' (जयो० २७/६०) मनोभाव-'मलापहेऽस्मिन् कविकल्पभोग्ये' (जयो० १९/९)
समूह-'कल्पस्समूहस्तेन' कल्पः (पुं०) १. कल्पवृक्ष, (सुद० १/१७) २. 'एक
स्वर्ग-प्राग्ग्रैवेयकेभ्यः कल्पाः (त०सू०४/२४) ग्रैवेयिकों से पहले अर्थात् सौधर्म से लेकर अच्युत पर्यन्त। ३. कल्पना-इन्द्रादयः प्रकारा वक्ष्यमाणा दश एषु कल्प्यन्ते इति कल्पाः । (त० वा० ४/३) ४. विधि, अनुष्ठान(जयो० २४/४९) कल्पो ब्रह्मदिने न्याये प्रलये विधिशान्तयोः इति वि (जयो० वृ० २४/४९) ५. बाह्य वस्तु का सेवन, ६. प्रलय, सृष्टि विनाश, कल्पयुग, कल्पकाल, नियम.
अध्यादेश, विकल्प आदि। कल्पकः (पु) [क्लुप्+ण्वुल्] १. संस्कार। २. नापित, नाई, क्षौरकर्मी। कल्पकाल: (पुं०) कल्पयुग का रचनाकार। कल्पकालः (पुं०) दस कोटा कोटि सागर प्रमाण। ओसप्पिणि
'उस्सपिणीओ दु वि मिलिदाओ कप्पो हवदि। (धव०
३/१३९) कल्पतरुः (पुं०) कल्पवृक्षा (सुद० १/१७)
कल्पतरुज्जयन्त (वि०) कल्पवृक्षों को जीतने वाले। 'फल
प्रदानाय समाह्नयन्तः श्रीपादपाः कल्पतरुज्जयन्तः। (सुद० १/१७) कल्पद्गु (पुं०) कल्पतरु, कल्पवृक्ष (वीरो० २/१०) इच्छानुसार
वस्तुओं को प्रदान करने वाला वृक्षा (मुनि०१५) 'धर्माख्य कल्पद्रुवरोऽभ्युदार:' (सुद० १३२) किमिच्छकेन दानेन जगदाशाः प्रपूर्यः यः। चक्रिभिः क्रियते सोऽर्हद्यज्ञः कल्पद्रुमो मतः। (सागार धर्मामृत २/२८, श्री पञ्चशाखः सुमनः
समूहेश्वरस्य कल्पद्रुरिवास्सदूहे' (जयो० १/५१) कल्पद्रुमः (पुं०) देखो ऊपर। कल्पद्रुवरः (पुं०) कल्पतरु। (सुद० १३२) कल्पनं (नपुं०) [क्लुप्+ल्युट्] १. मिथ्या बनाना, २. क्रमबद्ध
करना, ३. स्थिर करना, एक रूपता प्रदान करना, ४. सजाना, ५. कल्पना करना। (सुद० ३/४२) ६. विचार, उत्प्रेक्षा, ७. प्रतिमा, आविष्कार संरचना, ८. आभूषण,
सुसज्जा। (वीरो० १/२३) कल्पना (स्त्री०) ०विचार, ०सम्भावना, ०वाग्बुद्धिविकल्प,
प्रतीति, अध्यारोप, संरचना, सुसज्जा, अभिव्यक्ति, प्रतिभासा, शब्द सम्बन्ध। 'बभूव नासां शुककल्पनासा'
(जयो० १/६१) कल्पनात्मिक् (वि०) वृद्धपरम्परात्मिक, पूर्व परम्परा से युक्त।
(जयो० वृ० ३/११५) कल्पनी (स्त्री०) [कल्पन्+ङीप्] कैंची, छुरिका। कल्पपादपः (पुं०) कल्पतरु, स्वर्गकल्प वृक्ष। (दयो० ४) कल्पकलिन् (वि०) कल्पवृक्ष की याचना। (जयो० १२/१४४) कल्पय् (सक०) निकालना, बाहर करना। (दयो० वृ०११)
आत्मनो न सहेच्छल्यमन्यस्मै कल्पयेदसिम्' (दयो० वृ०११) कल्पलता (स्त्री०) कल्प वृक्ष, कल्पतरु, स्वर्ग के नन्दन वन
की लता। 'कल्पं किं कार्यं किं न कार्यं वेति विकल्प लातीति न कल्पलता। (जयो० वृ०१७/१०२) प्रभुभक्ति
रुताङ्गिनां भवेत्फलदा कल्पलतेव यद्भवे। (सुद० ३/५) कल्पलतिका (स्त्री०) कल्पलता। (जयो० २०/१३) कल्पवल्लिदलः (पुं०) कल्पलता समूह। कल्पवासी (पुं०) कल्पवासी देवा (वीरो० ६/२, जयो० २०/१३) कल्पवृक्षः (पुं०) कल्पतरू, कल्पलता। चक्रिभिः क्रियमाण
या कल्पवृक्षा इतीरिता। (धर्मसंग्रह ९/३०) कल्प-व्यवहारः (पुं०) प्रायश्चित्त निरूपक व्यवहार। * नियम,
विधि, अध्यादेश। कल्पाकल्पं (नपुं०) योग्य-अयोग्य निरूपण। 'कालमाश्रित्य
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