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उपयोगिन्
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उपल
उपयोगिन् (वि०) [उप+युज्+षिनुण] १. योग्य, उचित, समीचीन, | उपरि (अव्य०) [उर्ध्व+रिल, उप आदेश:] पृथक रूप से
२. कार्ययोग्य, ०करने योग्य, तथ्यपूर्ण, सेवार्थ, 'समं होने वाला अव्यय। जिसके कई अर्थ हैं-ऊपर, पर, समन्तादुपयोगि' (सम्य० पृ० ४) ३. मनोविचारी, 'पदयो: अधिक, बहुत की ओर ओर आदि। (सम्य० पृ० ४०) सदयोपयोगिनः' (जयो० २६/३७)
'प्रसादोपरि-सुप्तमवेहि तम्' (सुद० ७८) 'अंता भोगभृगुपरि उपयोगिनी (वि०) उपयोग करने वाली, उपयोगी, उचित, तु योगो' (सुद० १०५) 'अन्तरंग में भोग भोगने की प्रबल
समीचीनता युक्त। न त्रिवर्गविषये नियोगिनी नापवर्गपथि लालसा' उक्त पंक्ति में 'उपरि' का अर्थ 'प्रबल' भी है। चोपयोगिनी। (जयो० २।८८)
उपरिकर (नपुं०) ऊपर की ओर हाथ। उपयोजनं (नपुं०) स्वीकरण, इष्ट प्रयोजन। 'लसन्ति उपरिगेहं (नपुं०) ऊपर का गृह, उन्नत गृह।
सन्तोऽप्युपयोजनाय' (वीरो० १/११) 'उपयोजनाय उपरिचर (वि०) ऊपर की ओर विचरण करने वाला। स्वीकरणाय' (वीरो० वृ० १/११)
उपरिजात (वि०) उच्च जन्म वाला। उपरक्त (भू० क० कृ०) [उप+रञ्ज+क्त] कष्टजन्य, दुःख उपरितनं (नपुं०) ऊपरी भाग। युक्त, पीड़ित, संकट से घिरा हुआ, भयग्रस्थ।
उपरिदंतं (नपुं०) ऊपरी दांत। उपरक्षः (पुं०) [उप+र+अच्] अंगरक्षण, सुरक्षाकर्मी, संरक्षक। उपरिभागः (पुं०) ऊपरी अंग, ऊपरी भाग। उपरक्षणं (नपुं०) [उपरिक्ष ल्युट्] १. निक्षेपण, रखना- उपरिभू (पुं०) उच्च भूमि।
'आदानेऽप्युपरक्षणेऽपि कुरूताद् ग्रन्थादिकानां तथा।' (मुनिक उपरिभूमि देखो ऊपर। १२) २. संरक्षक, अंग रक्षण. रक्षा करने वाला। 'उपरक्षकस्तु उपरिप्रतिष्ठ (वि०) ऊपर स्थित, ऊपर प्रतिष्ठित। प्रवासिनं बहुधनं' (दयो० पृ० ८९) ३. सुरक्षाकर्मी, चौकीदार, 'द्वीपान्तराणामुपरिप्रतिष्ठः' (वीरो० २४१) पहरेदार।
उपरिष्ठात् (अव्य०) ऊपर, उर्ध्व पर, ऊँचे भाग पर। 'वाता उपरत [भू० क. कृ० ] निवृत्त, विरक्त, रहित, अभाव। इवासङ्गतयोपरिष्ठात्' (भक्ति० १६) उपरिष्टात्-शिखरतः।
'कुम्भकृत्युपरते क्व वाः स्थितिः' (जयो० २/९८) २. (जयो० वृ० १/९३) 'चर्मावृतं वस्तुतयोपरिष्टादन्तः' (सुद० उदासीन, आसक्ति से रहित।
पृ० १२०) उपरत-कर्मन् (नपुं०) कर्म से रहित।
उपरिस्थ (वि०) ऊपर स्थित, ऊपर प्रतिष्ठित। 'उपरिस्थं खलु उपरत-लोकः (पुं०) संसार से विरक्त।
भाविन : प्रमाणे' (जयो० १२/५८) उपरत-स्नेहः (पुं०) आसक्ति से शून्य, प्रेमविहीन।
उपरोधः (पुं०) १. रोक, निरोध, विराम, रुकावट। 'किन्नु उपरत-हास्य (वि०) हास्य से विहीन।
परोपरोधकरणेन कर्त्तव्या' (सुद० ९२) आच्छादन। २. उपरतिः (स्त्री०) [उप+रम्+क्तिन्] १. विरक्ति, निवृत्ति | आश्रय, आधार, सहायक। निरोग। २. विषयासक्ति से रहित।
उपरोधकं (नपुं०) १. निरोधक, आच्छादक। २. आधारभूत, उपरत्नं (नपुं०) तुच्छ रत्न, अशुद्ध रत्न।
आश्रय। उपरमः (पुं०) [उप+रम् घञ्] विरक्त, निवृत्त, उदासीन, उपरोधक (वि०) रोकने वाला, निरोध करने वाला। त्याग परिवर्जन।
उपरोप (पुं०) धारण, रोपना। उपरमणं (नपुं०) [उप+रम् ल्युट्] १. विरक्ति, निवृत्ति, । उपरोपिणी (वि०) प्रवर्तिनी। (जयो० २/१२६)
उसीनता, २. त्याग, विसर्जन, ३. अभाव, ४. रति उपरोपित (भू० क० कृ०) परिधारित, (जयो० १५/७६) रहित, आसक्ति से विरत।
उपर्युपात्त (वि०) ऊपर से प्रभावान्। (सुद० १०१) उपरसः (पुं०) अशुद्ध रस, अशुद्ध धातु खनिज की अशुद्धता। उपर्युपरि (अव्य०) ऊपर-ऊपर, ऊँचे-ऊँचे, उर्ध्व उर्ध्व, पास। उपरागः (पुं०) [उप+र+घञ्] १. लालिमा, लाल रंग, उपर्यथो (अव्य०) ऊपर से। (वीरो० ९/२४) 'उपर्यथो
प्रबालता। २. कष्ट, दुःख, संकट। ३. घृणा, निन्दा. तूलकुथोऽनपायिनः' दुर्व्यवहार दुर्वचन।
उपल (पुं०) १. पाषाण, प्रस्तर, पत्थर। (दया० वृ०६०) २. उपराजः (पुं०) उपशासक, उपराज प्रतिनिधि।
रत्न विशेष।
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