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अर्तिकथाविधानम्
१०४
अर्थवेत्ता
अर्तिकथाविधानम् (नपुं०) पीडाकारक कथा का कथन। स्यादर्थस्तत्समुच्चयः। (सुद० ) काम-भोग तो रस है और (वीरो० १२/३६)
धन-सम्पदादि पदार्थों का समुदाय है। अर्तितोदयः (पुं०) दुःख से दूर (वीरो० १८/३३)
अर्थ-ओघः (पुं०) धन का भण्डार। अर्तिका (स्त्री०) नाम विशेष, बड़ी बहिन।
अर्थकर (वि०) लाभदायक, धनसम्पन्न करने वाला। अर्तिहानि (वि०) आकुलता को दूर करने वाला। (सुद० अर्थकृत (वि०) १. लाभ पहुंचाने वाला, लाभदायक, २. १२८)
पाठक, मत्तहस्तिभिरमुष्य हेऽर्थकृत्। (जयो०७/१००) हे अर्थ (सक०) ०प्रार्थना करना, ०मांगना, ०याचना करना, अर्थकृत/पाठक।
०अनुरोध करना, ०प्रयत्न करना, ०चाहना, ०इच्छा करना, अर्थकाम (वि०) धनेच्छुक, धनाभिलाषी। ०समर्थन करना 'शास्त्रमर्थयतु सम्पदास्पद।' (जयो० २/४२) अर्थकामपुरुषार्थी (वि०) रमारती 'रमा' च रतिश्च रमारती, यत्प्रसङ्गजनितार्थदं पदम्।'
अर्थकाम-पुरुषार्थी। (जयो० वृ० २/१०) अर्थः (पुं०) इच्छा, प्रयोजन, हेतुभाव, अभिप्राय, लक्ष्य, अर्थकुलः (पुं०) अर्थसमुदाय। (जयो० २/११०) उद्देश्य।
अर्थक्रिया (स्त्री०) सार्थक, काम नहीं आना। (वीरो० १९/१२१), १. प्रयोजन-शिशोरिवान्यस्य वचोऽस्त्वपार्थः। मोहाय (वीरो० १९/१) सम्मोहवतां धृतार्थम्। (जयो० २८/२४) 'अर्थः प्रयोजने अर्थक्रियाकर (वि०) सार्थक, काम नहीं आने वाला। विने हेत्वभिप्राय वस्तुषु' इति विश्वलोचना,
नार्थक्रियाकरो वीरपट्टो माणवसिंहवत्। (जयो० ७/२८) २. उद्देश्य/लक्ष्य-त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं । अर्थ-क्रिया-कारिन् देखें नीचे त्यजेत् ग्राम देशकृते त्यक्त्वाप्यात्मार्थ पृथिवीं त्यजेत्। - अर्थक्रियाकारिणी (वि०) अर्थ क्रिया करने वाली। (जयो० (दयो० २/३),
१९/१) ३. अभिप्राय/रहस्य/ज्ञान-'कलङ्कमेत्वङ्कदलं तदर्थ-' अर्थगौरवं (नपुं०) अर्थ की गम्भीरता, वस्तु की गहराई। (जयो० १/१४),
अर्थन (वि०) व्ययशालिनी, अतिव्ययकर्ती, अपव्ययी। ४. निमित्त-नो सुलोचनया नोऽर्थो व्यथमेव न पौरुषम्। अर्थजात (वि०) अर्थ से परिपूर्ण, रहस्यगत। (जयो० ७/५०),
अर्थजातिः (स्त्री०) पदार्थ समूह (वीरो० २९/६१) ५. रहस्य/जहासि मत्तोऽपि न किन्नु मायां चिदेति अर्थद (वि०) अर्थप्रदाता, धनदाता। मेऽत्यर्थमकिन्नु मात्याम्। (सुद० ३/३८),
अर्थदूषणं (नपुं०) अन्याय युक्त अर्थोपार्जन, अर्थ दोष। ६. अभीष्ट, इष्ट-अस्याः क आस्ता प्रियएवमर्थः। (सुद० अर्थदोषः (पुं०) अर्थ दूषण, तत्त्व रहस्य दोष, धन व्यय, २/२२),
अपव्यय। ७. वस्तुतत्त्व का बोध-"शब्दस्य चार्थस्य तयोर्द्वयस्या" अर्थनयः (पं०) भेद से अभिन्न वस्तु का ग्रहण। शब्दाचार और अर्थाचार तथा उभयाचार ये ज्ञानाचार के अर्थनिबन्धनं (नपुं०) अर्थाश्रय, अर्थसंग्रह। भेद हैं। (भक्ति०८) पद को पढ़ना, अर्थ लगाना, मेल अर्थ-निश्चयः (पुं०) अर्थ निर्धारण, रहस्य विवेचन, रहस्य मिलाना दोनों का।,
निर्णय। ८. पुरुषार्थ-विशेष-द्वितीय पुरुषार्थ-त्रिवर्ग- निष्पन्नतया- अर्थपतिः (पुं०) धनपति, कुबेर। ऽखिलार्थानमनुष्य मेधा लभतामिहार्थात्। (जयो० २/२८) अर्थपदः (पुं०) अर्थ परिज्ञान। धर्मश्चार्थश्च कामश्च वर्गत्रितयमदः। (जयो० वृ० १/२८) अर्थभारः (पुं०) सम्पत्ति का भार (सम्य० ७४) धर्मार्थ-काम-मोक्षाणामनध्ययनशीलः। (जयो० वृ० १/२४) अर्थरुचिः (स्त्री०) तत्त्वरुचि। (सुद० ३/१२) कारणार्थ के योग-धर्मोऽप्यधर्मोऽपि नभश्चकाल: अर्थलोभः (पुं०) धन की लालसा, सम्पत्ति की इच्छा।
स्वाभाविकार्थक्रिय- योक्तचालः। (सम्यवृ० २२) अर्थविकल्पः (पुं०) अर्थ को तोड़ना, अर्थ दूषण। अर्थ (नपुं०) धन, कोष, भण्डार, खजाना, सम्पत्ति। 'व्यर्थं च | अर्थविनयं (नपुं०) आसन देना।
नार्थाय समर्थनं तु। (जयो० १/१७) कामनामरसो यस्य अर्थवेत्ता (वि०) अर्थ/पदार्थ का ज्ञाता। (वीरो० २२/३)
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