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अर्थ-व्ययः
१०५
अर्धनाराचः
का।
अर्थ-व्यय: (०) धन व्यय, धनखर्च।
अर्थित (भू०क०कृ०) प्रार्थित, याचित, इच्छित। अर्थशास्त्र (पुं०) अर्थशास्त्र, विशेष। (वीरो० १८/१४) अर्थित्व (वि०) चाहने वाला, इच्छा करने वाला। अर्थी दोषं अर्थशास्त्रज्ञ (वि०) अर्थशास्त्रज्ञाता। अर्थशास्त्र को नीतिशास्त्र न पश्यति। (जयो० ७० २०/२९) अर्थित्वतः परवशा:
भी कहा-प्रत्युवाच वचो व्यर्थमर्थशास्त्रज्ञतास्मयी। (जयो० समिता नवीनाम्। (जयो० २०/२९) ७/४५) अर्थशास्त्रज्ञतास्मयी-नीतिशास्त्रज्ञताभिमानी। (जयो० अर्थिन् (वि०) [अर्थ इनि] अर्थ्यभिलप्प, इच्छुक, प्रार्थित, वृ० ७/८५)
याचित, चाहने वाला। अर्थिनां याचकानामभिलाषो: मनोरथ। अर्थशुद्धि (वि०) शुद्धार्थ, शुद्धिविधायक विनिमय नीति शास्त्र। (जयो० १/१७) सम्यक् सूत्रार्थ निरूपण। (जयो० २/५२)
अर्थिनी (वि०) ०प्रार्थिनी, ०इच्छिनी, ०अभिलाषिनी। तामाह अर्थशुद्धिदा (वि०) अर्थ की विशुद्धता दिखलाने वाला। पुनरप्येवं कामातुरतयार्थिनी। (सुद० वृ० ९०)
अर्थस्य शुद्धिरर्थशुद्धिस्तां ददातीति अर्थशुद्धिदा- अर्थी (वि०) इच्छुक, अभिलाषी। (जयो० २६/७९) सम्प्रत्यर्थी शुद्धार्थप्रतिपादिका। (जयो० वृ० २/५२)
च भूभागे। (जयो०७/२१) अर्थशौचं (नपुं०) अर्थ/लेन-देन में शुचिता, धन के प्रति अर्थीय (वि०) पूर्वनिर्दिष्ट, अभिप्रेत। उचित भाव।
अर्थय् (वि०) [अर्थ+ ण्यत्] योग्य, उचित, यथेष्ट। (जयो० अर्थ-सम्बन्धः (पुं०) वाक्य से प्रयोजन, अर्थ के प्रति उचित भाव। १/१७) अर्थाचारः (पुं०) नयनाश्रित शास्त्राभ्यास।
अर्थ्यभिलाषता (वि०) याचक की अभिलाषा वाला। (जयो० अर्थात् (अव्य०) नि:संदेह, वस्तुतः, यथार्थतः, ऐसा, इस तरह १/१७) 'पूर्णो यतश्चार्थ्य भिलाषतन्तुः।'
अर्द (अक०) दुःख देना, पीड़ित करना, प्रहार करना, मारना, अर्थातिशय (वि०) गम्भीरार्थवती, गुर्वी, (जयो० वृ० २०/८१) घायल करना। अर्थानुबन्ध अर्थ नाम की सार्थकता, अर्थ का सम्बन्ध। । अर्दन (वि०) [अर्द+ ल्युट] क्षुभितकर्ता, दु:ख करने वाला, अर्थाजनसार्थकत्व। (जयो० वृ० २/११०)
सताने वाला। अर्थान्तरन्यासः (पुं०) अर्थान्तरन्यास नामक अलंकार। (जयो० अर्दनं (नपुं०) दुःख बाधा, पीड़ा, उत्तेजना।
३/१०२, २/४, ३/७०) ७/९१, ७/७८, ५/२५, ३/३१, अर्दित (वि०) रुग्ण, रोगी, व्याकुलित। नार्दिताय तु सदर्चिषे ३/४७, २३/७०) (वीरो० ५/९४, जयो० १४/३९, १६/४८) घृतम्। (जयो० २/१०३) अर्दिताय रुग्णाय-रोगी के लिए। उक्तसिद्ध्यर्थमन्यार्थन्योव्याप्तिपुरः सर:। कथ्यतेऽर्थान्तरन्यासः अर्ध (वि०) [ऋध् णिच्+अच्] अर्ध, आधा, एक के दो श्लिष्टोऽश्लिष्टश्च स द्विधा।। (वाग्भहालङ्कार ४/९१) भाग। स गौरीं जिनामधर्मभङ्गम्। (वीरो० ४/३०) किसी उक्ति को सिद्ध करने के लिए जहां युक्तिपूर्वक अर्धक (वि०) आधा, अर्धभाग। समुदीक्ष्य जिनासनार्धके स्म। किसी अन्य अर्थ को प्रस्तुत किया जाता है वहां | (वीरो०४/३०) 'अर्थान्तरन्यास' अलंकार होता है। तदधीशाज्ञयाऽयातः - अर्धकृत (वि०) आधा किया गया। कुशलं वः पदाजयोः विसारसन्ततेः किं स्याज्जीवनं जीवन अर्धगुच्छः (पुं०) चौबीस लड़ियों का हार। विना।। (जयो० ३/३१) उस नगरी के स्वामी की आज्ञा अर्धचन्द्रः (पुं०) बाण/अर्धचन्द्र नामक हार 'सनागपाशं से मैं आया हूं। मेरा कुशल तो आपके चरणों में है, शरमर्धचन्द्रम्।' (जयो० ८/७७) क्योंकि जल के बिना मछली का जीवन कैसे? एवं अर्धचन्द्राकार (वि०) आधे चन्द्र के आकार वाला। (जयो० सुविश्रान्तिमभीप्सुमेतां विज्ञाय विज्ञा रुचिवेदने ता:। विशश्रमुः वृ० १९/२) साम्प्रतमत्र देव्यः। मितो हि भूयादगदोऽपि सेव्यः।। (जयो० अर्धचन्द्रकृति (वि०) अर्धचन्द्र रूपी आकृति। ५/३४)
अर्धचोलक (पुं०) अंगिया, चोली। अर्थापत्तिः (स्त्री०) संजात अदृष्ट दृष्टि की कल्पना। अर्धराजदानम् (नपुं०) आधे राज्य का दान। (वीरो० १७/३९) अर्थिक (वि०) [अर्थयते इत्यर्थी कन] चिल्लाने वाला, घोषणा अर्धदिनं (नपुं०) आधा दिन, अर्ध दिवस। करने वाला।
अर्धनाराचः (पुं०) अर्धचन्द्रकार बाण।
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