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अकाम
अकुञ्चित
वाली, अशोभनीय, कान्तहीन, प्रभारहित। सुपर्वधामाभि- | अकाय-शङ्कासाहित (वि०) दु:ख प्राप्ति की शङ्का सहित। भवामकान्ताम्। (जयो० ११/५६)
(जयो० १५/३१) अकाम (वि०) इच्छा, रहित, काम मुक्त, अनुराग विहीन। अकार्य (वि०) अनुपयुक्त। अकाम (वि०) अनिच्छापूर्वक। (सम्म०८४)
अकाल (वि०) असमय, विकाल। अकाल एतद् अकामनिर्जरा (स्त्री०) अनिच्छापूर्वक जो कर्म निर्जरा होती घनघोररूपमात्तम्। (सुद० १२०) है, वह अकामनिर्जरा है।
अकाल (वि०)असामयिक, प्राक्कालिक। अकाम-मरण (नपु०) अनेच्छुमरण। अकामेन अनीप्सितत्त्वेन अकालमृत्यु (वि०) असमय मरण। म्रियतेऽस्मिन् इति अकाममरणं बालमरणम्।
अकिञ्चन (वि०) निष्परिग्रही. त्यागयुक्त, नग्न। मेरा कोई अकामुक (वि०) शान्तिपूर्वक। (जयो० २/१४१) गतानुगत्या
नहीं और मैं भी किसी का कुछ नहीं हैं। अकिञ्चनोऽऽन्यजनैरथाहता, मृता च साऽकामुकनिर्जरावृता। (जयो० सम्यन्तरनुस्मरेण, कायोऽपि नायं मम किं परेण। (भक्ति २/१४१)
सं०५०) अकामुकनिर्जरा (स्त्री०) शान्तिपूर्वक कर्म निर्जरा। अकामुक- अकिञ्चनता (वि०) अकिञ्चनत्व, सकलग्रन्थत्याग, संगमुक्ति।
निर्जरया शान्तिपूर्वक कष्ट-सहन-हेतुना आवृताऽलङ्कृता। अकिञ्चनधर्म (वि०) आकिञ्चन्यधर्म, सकलग्रन्थत्यागधर्म। (जयो० वृ० २/१४१)
(जयो० २८/३१) हमारे पास कुछ नहीं। (जयो० वृ० अकाय (वि०) निरङ्कश। (वीरो० १/३८) अशरीर, सिद्ध। १२/१४१) संगीत गुण संस्थोऽपि, सन्नकिञ्चन रागवान्। अकाय (वि०) कामातुर, काम की शङ्का सहित। अकस्य प्रशंसनीय गुणों की स्थिति होने पर भी सकलग्रन्थत्यागधर्म दु:खस्याय: सम्प्राप्तिभावस्तस्य। (जयो० वृ० १५/३९)
वाले। द्रागकिञ्चनगुणान्वयाद्वतेद्रड न किञ्चिदिह सम्प्रतीयते। अकाय (वि०) अनङ्ग, काम, कामातुर। अकायस्य अनङ्गस्य (जयो० १२/१४१) कामस्य शङ्का सहितः कामुतरो भवतीति।
न विद्यते किञ्चनापि यत्र सोऽकिञ्चनो गुणस्तस्याअकाय (वि०) ०काम रहित, ०शरीर रहित, सिद्ध, ०अशरीरी। न्वयाद्धेतोरिहास्माकं गृहे, ईदृक् किञ्चिदपि परं न प्रतीयते कायोऽप्यकायो जगते। (वीरो० १/३८)
तदस्मात्। (जयो० वृ० १२/१४१) हम लोग अकिञ्चन अकाय-क्लेश (वि०) पाप परिकर। अकाय नाम पापाय गुण के धारक हैं, अतः हमारे पास आपके (वरपक्ष) क्लेशसंभूतः कष्टकारकः। (जयो० वृ० २८/१२)
सत्कार करने योग्य कोई वस्तु नहीं है। अकाय-क्लेशसंभूत (वि०) पाप परिकर रूप। पापकष्ट
अकिञ्चिज्ज (वि०) [अकिंचित्+ज्ञा+क] कुछ न जानने कारक। (जयो० वृ० २८/१२)
वाला, निपट अज्ञानी। अकार (पु०) अवर्ण, प्रथम स्वर। अकारेण शिष्टं प्रारब्धोच्चारणम्।
अकिञ्चित्कर (वि०) निरर्थक, अर्थहीन। अत्यये च तयोश्चा(जयो० वृ० २८/२०) 'अ' से शिष्ट उच्चारण भी होता है। सावकिञ्चित्करतां व्रजेत्। (जयो० ७/३७) अकार (वि०) अपूर्व, आद्य। (जयो० वृ० १६/४९) अकारस्य
अकिञ्चित्करता (वि०) निरर्थकता, कुछ नहीं रहना। तयोरत्यये ईषदर्थकत्वेन हीनार्थकत्वात्। (जयो० ५/११) अकार:
नाशे सति असौ अकिञ्चित्करतां निरर्थकतां व्रजेदिति पूर्वस्मिन् यस्याक्तामपूर्वाम्।
चिन्तनीयम्। (जयो० वृ० ७/३७) अकारण (वि०) कारण रहित, निराधार। कथं पुनरकाणरमेव
अकिता (वि०) दुःखित्व, कष्ट। इति असौ अकिताया: स्थलं विपरीतं गीतवान्। (दयो० ९०) आज बिना कारण ऐसी
अभूत्। ऐसी सभा देखकर मन में थोड़ा सा कष्ट का उल्टी बात क्यों कर रहे हैं।
अनुभव किया। (जयो० ५/३५) अकारात्समारभ्य (वि०) 'अ' से लेकर 'म' पर्यन्त। (जयो०
अकी (वि०) दुःखी, पीड़ित। गङ्गामभङ्गां न जहात्यथाकी। वृ० २८/२६)
(जयो० १८, ९) दु:खी होकर शङ्कर नित्य प्रवाहित होने अकारिन् (वि०) स्थान, (जयो० १७/५२)
वाली गङ्गा को कभी नहीं छोड़ते।। अकारिन् (वि०) [न कारिन्] प्रयोजन रहित। हनन, घातक।
अकुञ्चित (वि०) उदरचेता। न कुञ्चितोऽकुञ्चितः, मरालतुल्यसुदर्शनोऽकारि विकारि। (सुद० १०७)
उदारभावना युक्तः (जयो० ३/९) हंसवद कुञ्चिताश्रयः (जयो० २/९)
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