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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋक्षनाथ: २२८ ऋतुकौतुकी ऋक्षनाथः (पुं०) नक्षत्र स्वामी। ऋज्ची (स्त्री०) [ऋजु+ङीष्] १.गोचर भूमि, समश्रेणी में ऋक्षनेमिः (पुं०) विष्णु। अवस्थित भूमि। २. सरलमनस्विनी। ऋक्षरः (पुं०) [रुष्+क्सरन्] १. ऋत्विज, २. कंटक, कांटा, शल्य। ऋणं (नपुं०) १ ऋण, कर्ज, उधार लेना। २. दायित्व, कर्त्तव्य। ऋक्षवत् (वि०) पर्वत तुल्य। ऋणग्रहः (पुं०) रुपया उधार लेना। ऋग्वेदः (पुं०) ऋग्वेद, वेद ऋचा का एक नाम। (दयो० २६) ऋणदायिन् (वि०) ऋण देने वाला, उधार देने वाला। ऋग्वेद-मण्डलः (पुं०) ऋग्वेद के अध्याय। (दयो० २७) ऋणदासः (पुं०) क्रीत दास। ऋच् (अक०) १. प्रशंसा करना, स्तुति करना, २. चमकना. ढकना। ऋणभार्गणः (पुं०) प्रतिभूति, जमानता ऋच् (स्त्री०) [ऋच्+क्विप्] सूक्त, ऋचा, मंत्र। २. दीप्ति, ऋणमुक्त (वि०) उधारी से रहित। प्रभ कान्ति। ऋणरहित (वि०) अनृणत्व, उधारी से रहित। (जयो० वृ० ऋविधानं (नपुं०) ०मन्त्र अनुष्ठान, मन्त्रपाठ, सूक्त २०/७०) विधि, वेदमंत्र पाठ। ऋणिकः (पुं०) [ऋण+ष्ठन्] कर्जदार, ऋणाभूत। ऋचीषः (पुं०) [ऋच्+ईषन्] घण्टी। ऋणिन् (वि०) [ऋण इनि] १. ऋणग्रस्त, कर्जदार, २. ऋच्छ (अक०) १. कठोर होना, दृढ़ होना। २. जाना। अनुगृहीत, आभारी। 'चक्रधरेषु सतामृणी' (जयो० ९/८२) ऋच्छका (स्त्री०) [ऋच्छ कन्+टाप्] वाञ्छा, अभिलाषा, ऋणीकृत् (वि०) ऋणी/अनुगृहीत की गई। 'ऋणीकृताहं च इच्छा , चाह। कदानृणत्वं' (जयो० २०/७०) ऋज् (सक०) १. गमन करना, २. प्राप्त करना, ग्रहण करना। ऋणीत्थ (वि.) कृतज्ञ, अनुगृहीतार्थ। 'गुरोऋणीत्थं विचरेदपि ३. स्थिर होना। ४. उपार्जन करना। ज्ञः' (वीरो० १७/३१) ऋजु (वि०) [अर्जयति गुणान्, अर्जू+उ] सरल, ०सीधा, | ऋत (वि०) [ऋ+क्त] सत्य, हितकर, समीचीन, उचित। स्पष्ट, उत्तम, योग्य, अनुकूल। अपि त्वयि महावीर, 'ऋतं प्राणिहितं वचः' (हरिवंश पुराण ५८/१३०) स्फीतां कुरुमधु मयि! (वीरो० २२/४०) ऋतं (अव्य०) निषेध वाचक अव्यय। बिना, नहीं, उचित रीति ऋजुक (वि०) सीधा, सरल, अनुकूल, स्पष्ट। 'जो जधा से, सही ढंग से। 'ऋते तमः स्यत्क्वरवे: प्रभावः' (वीरो अत्थो दिट्ठो तं तधा चिंत यंतो मणो उज्जगो' (धव० १/१८) १३/३३०) जो जैसा अर्थ/पदार्थ दृष्ट है, वह वैसा चिंतनीय ऋतधामः (वि०) उचित स्वभाव वाला। मन ऋजुक है। ऋतिः (स्त्री०) अमंगल, अशुभ, निन्दा, गाँ। 'ऋतिर्गतौ जुगुप्सायां ऋजुता (वि०) सरलता, सीधापन, सरलभाव वाली, स्पष्टता, स्पर्धायामप्यमङ्गले' 'इति विश्वलोचन' (जयो० १०/११०) मायाचार रहित प्रवृत्ति। (जयो० ८/१२४) ऋतीया (स्त्री०) [ऋत् + ईयङ+ टाप] निन्दा, गरे, ऋजुमतिः (स्त्री०) सामान्य ग्राहक बुद्धि, सरलग्राहक बुद्धि। अमंगलकामना। ज्ञान का भेद, मनःपर्यय ज्ञान का भेद। ऋज्वी मतिर्यस्य ऋतुः (स्त्री०) [ऋ+तु+कित] मौसम, दो मास की एक ऋतु, सोऽयं ऋजुमतिः (स० सि० १/२३) वर्तमान समय में जो वसंतादि ऋतु। 'मेघमानित ऋतौ विनश्यता' (जयो० ७/६९) बात किसी के मन में हो, उसके जानने वाले ज्ञान को 'वे मासे उडू' (धव० १३/३००) द्वाभ्यां मासाभ्यामृतुः' ऋजुमति कहते हैं। यह उपशम श्रेणी वाले को होती है। (नियमासार वृ० ३/३१) २. बुद्धि विभव 'वरः तीक्ष्णः 'णमो उजुमदीणं च' (जयो० १९/६५) ऋतुर्बुद्धि विभवो यस्याः सत्यपि सुलोचना। ३. उपयुक्त ऋजुसूत्रं (नपुं०) वर्तमान काल ग्राहक, वर्तमान का एक समय, उचित समय। ३. ऋतुकाल-मासिक धर्म (स्त्री का समय मात्र। यह नय-तीनों कालों के पूर्वा पर विषयों को मासिक धर्म) छोड़कर वर्तमान का ग्राहक है। 'ऋजु प्रगुणं सूत्रयति ऋतुकालः (पुं०) १. ऋतु काल, (जयो० २/१२४) तन्त्रयतीति ऋजुसूत्रं (स० सि० १/३३) पच्चप्पण्णग्गाही 'ऋतुकालोऽस्ति निवृते' (सुद० ११३) २. आर्तव, रक्तस्राव, उज्जुसुओ' (जैन०ल० २८८) ऋजुसूत्रस्य पर्यायः प्रधानम्। मासिक धर्म, (मुनि० २८) (लघीयस्त्रय ४३) ऋतुकौतुकी (स्त्री०) वसन्त ऋतु, कौतुक/आनन्द को उत्पन्न For Private and Personal Use Only
SR No.020129
Book TitleBruhad Sanskrit Hindi Shabda Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherNew Bharatiya Book Corporation
Publication Year2006
Total Pages438
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary
File Size14 MB
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