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ऊध्वायत
२२७
ऋक्षचक्र
ऊर्ध्वायत (वि०) ऊपर की ओर, उच्चैलम्बमान। दधतां सुसृणिं
चिन्तन, मुक्ति देना। (जयो० वृ० १८/२) 'ऊहो त्वरावता शिर ऊर्ध्वायतदन्तमण्डलम्' (जयो० १३/३६) वितर्को येषु तस्य भाव:' (जयो० वृ० ६/४) ऊर्वी (वि०) ऊर्ध्वमुख, ऊँचे की ओर।
'अवगृहीतार्थस्यानधिगतविशेष उह्यते तळते अनया इति' ऊर्मि: (स्त्री०, पुं०) [ऋ+मि-अर्तेरूच्च] १. लहर, तरंग, (धव० १३/२४२) अवग्रह गृहीत पदार्थ का विशेष अंश
भाग। (जयो० १०/८७) २. धारा, प्रवाह, गति, वेग। नहीं जाना गया, उस पर विचार करना।
(जया० ४/१९)। ३. पंक्ति, रेखा राजि। ४. चिन्ता, कष्ट। 'विज्ञातमर्थमवलम्ब्यान्येषु व्याप्ता तथाविध-वितर्कणमूह:' ऊर्मिका (स्त्री०) लहर, तरंग, रेखा, पंक्ति।
(नीतिवाक्यामृत ५/५०) ऊर्मिकाङ्कित (वि०) १. शाखा प्रशाखा युक्त। २. लहरों से ऊहक्रमः (पुं०) कल्पना परिपाटी (जयो० वृ० २८/४४)
अंकित, रेखांकित। ऊर्मिकाङ्कित सन्तानां मत्तवारणराजिका।' ऊहनं (नपुं०) अनुमान बना। (जयो० १०/८७)
ऊहसत्ता (स्त्री०) तर्क-वितर्कभाव। (वीरो० २/३९) ऊर्व (वि०) [ऊरु+अ] विस्तृत, बड़ा।
ऊहपना (वि०) तर्क-वितर्कपना। (वीरो० २/३९) ऊर्वरा (स्त्री०) उपजाऊ भूमि, कृषि योग्य भाग।
ऊहपात्री (वि०) तर्क-वितर्कभाव वाला। (वीरो० ३/१८) ऊलुपिन् (पुं०) सूंस, शिशुक।
ऊहा (स्त्री०) तर्क-वितर्क, अनुमान, विचार, चिन्तन, ऊलूकः (पुं०) उल्लू।
व्याप्तिज्ञान। 'उह्यते तय॑ते अनया इति ऊहा' (धव० ऊष् (अक०) रुग्ण होना, बीमार होना, अस्वस्थ्य होना।
१३/२४४) ऊषः (पुं०) [ऊष+क] १. प्रभात, प्रातः, २. उपज विहीन ऊहापोहः (पुं०) तर्क-वितर्क। (वीरो० ३/१८) भूमि। ३. अम्ल, दरार।
ऊहिन् (वि०) तर्क, करने वाला। ऊषकं (नपुं०) [ऊ+कन्] प्रभात, प्रातः।
ऊहोचित स्थानं (नपुं०) तर्कणा का कारण। 'बहुलोहीचितऊषणं (नपुं०) [ऊष्ल्युट्] काली मिर्च, अदरक।
स्थानोऽपि' (दयो० पृ०६८) ऊषरः (पुं०) उपज रहित भू-भाग, रिहाली भूमि, मरुधरा,
सिकतिल प्रदेश। 'तत्परिणतिं प्रापोषरे बीजवत्।' (जयो० २४/१३६) 'ऊपरं नाम यत्र तृणादेस्सम्भवः'। (श्रावक
ऋ प्रज्ञप्तिः ४७)
ऋः (पुं०) संस्कृत वर्णमाला का सप्तम स्वर। इसका उच्चारण ऊषरटकः (पुं०) ०ऊपर भूमि, सिकतिल प्रदेश। मरुधारा। स्थान मूर्द्धा है।
(जयो० २/५) 'तवदूषरटके किलाफले का प्रसक्तिः ' ऋ (अव्य०) विश्मयादिबोधक अव्यय। इसका प्रयोग निन्दा, ऊषवत् (वि०) ऊषर भूमि, मरुधरा।
गर्दा, परिहास आदि में किया जाता है। ऊष्मन् (पुं०) [ऊष्+ मनिन्] १. गर्मी, ताप, अग्नि, ग्रीष्म ऋ (सक०) १. जाना, कांपना, उठाना। (अर्पयति, अरिरिषति)
ऋतु, भाप, वाष्प। २. प्रचण्डता, तीव्रता। ३. ऊष्म ध्वनि २. आक्रमण करना, घायल करना, चोट पहुंचाना। ३. विशेष-श, ष, स और ह ध्वनियां।
रखना, स्थापित करना, निर्देश देना। ऊष्मवर्णः (पुं०) ऊष्मवर्ण की ध्वनियां श, ष, स और ह। ऋ (स्त्री०) १. अदिति, देवमाता। २. निन्दा, गर्हा, ग्लानि।
ऊष्माणो नाम वर्णा: श-ष-स-हा (जयो० वृ० ११/७८) ऋक् (स्त्री०) १. ऋचा, सूत्र, मन्त्र। २. स्तुति, पूजा, अर्चना। ऊष्मा (स्त्री०) १. ऊष्मवर्ण -श-ष-स-ह। २. सन्ताप, उष्णता। ऋकण (वि०) घायल, आहत, चोट ग्रस्त।
यदेव भूयोऽपि पयोनिपीतमन्तः स्थितोष्मातिशयेन हीतः। ऋकथं (नपुं०) [ऋच्+थक्] धन, वैभव, सम्पत्ति, सामग्री। (जयो० १३/१००)
ऋक्सुधा (स्त्री०) ऋग्वेद मंत्र का अमृत। नीतिवाक्यमृत। ऊहू (सक०) १. अंकित करना, टांकना, चिह्नित करना। २. (जयो० ७)
अनुमान लगना, समझना, सोचना, चिन्तन करना। ३. ऋक्षः (पुं०) [ऋष्+स+किच्च] १. रीक्ष, भालू, भल्लू। २. तर्क करना, विचार करना।
नक्षत्र, तारा। ३. राशि, चिह्न। ऊहः (पुं०) [ऊह्+घञ्] वितर्क, तर्कणा, अनुमान, | ऋक्षचक्र (नपुं०) तारा मण्डल, नक्षत्रसमूह।
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