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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अहिंम्र १३७ क्या पञ्चसमितियों के पालक पुरुष के समीचीन प्रवृत्ति से हो सकती है? अर्थात् नहीं? तात्पर्य यह है कि पंच समिति पालक के हिंसा संभव नहीं। इसे धर्मवृक्ष का मूल कहा है-मूलं धर्मतरोरवेहि मतिमन्यत्नादहिंसाव्रतम्। (मुनि श्लो ११) अहिंस्र (वि०) अहिंसक, निर्दोष, प्राणिरक्षक। अहिन् (नपुं०) दिन, दिवस। 'पादार्दितामहिरवेस्तुदीनां।' (जयो० १५/७२) अहिम (वि०) गर्म, उष्ण। अहीन (वि०) १. उच्च, विशाल, विराट, 'उत्थाय सूत्थान भृतामहीन:।' (जयो० १/७९) अहीन उन्नतिशालिनाम्। (जयो० पृ० १/७९) २. पवित्र, श्रेष्ठ, अच्छा, उत्तम-तममुचकार पथीहाहीने। (जयो० २२/३६) हीने पवित्रे पथीह मार्ग। (जयो० वृ० २२/३६) अहीनः (पुं०) १. सर्प, द्विजिह्वातीरितगुणोऽप्यहीनः। (जयो० २/२) अहीनक (वि०) समुत्कृष्ट, उत्तम। हृदि सम्पदिवाथ दीपकः समभात् सोऽवधिरप्यहीनक:। (जयो०२३/३८) अहीनगुणः (पुं०) उत्कृष्ट गुण, त्रुटिरहित गुण। सदहीन गुणस्थानमञ्चकादभिनिर्वृतः। (जयो० १८/९७) अहीनानां मध्ये त्रुटिरहितानां गुणानां तन्तूनां स्थानात्। (जयो० वृ० १८/९६) अहीनानि यानि गुणानि। अहीन गुणस्थानं (नपुं०) आगमोक्त गुणस्थान, चौदह गुणस्थान। __ (जयो० १८/९६) अहीनधुरी (वि०) उत्कृष्टशोभा सम्पन्नता, अतिशय सुशोभित। ___ अम्भोरुहि स्फुरणतः स्विदहीनधुयें। (जयो० १८/९) अहीननय (वि०) अन्यूनत्व, न्यूनता रहित। (जयो० १/२५) अहीनभाव (पुं०) उत्कृष्टभाव, उचित परिणाम। (जयो० १/२) अहीनभृत्व (वि०) प्रशंसनीय, सराहनीय। बभार च श्रीमदहीन भृत्वम्। (जयो० १/३०) अहीनलम्ब (वि०) सर्प सदृश लम्बे। अहीनलम्बे भुजम दण्डे। (जयो० १/२५) अहीनां सर्पाणामिनः स्वामी तद्वद् वा लम्बे दी। (जयो० वृ० १/२५) अहीन-सन्तानः (पुं०) सर्प संकुल, सर्प समूह। अहीन-सन्तान समर्थितत्वात्। (वीरो० २/२३) न हीना अहीना: सद्गुणसम्पन्नास्तेषां सन्तानैर्यद्वाऽहीनामिनः शेष। (वीरो० पृ०२/२३) अहीरः (पुं०) अभीर, अहीर जाति. ग्वाल जाति। अहुत (वि०) अप्रार्थित, आहूति रहित। अहे (अव्य०) वियोग सूचक। जिसमें भर्त्सना, निन्दा प्रकट की जाती है। अहेतु (वि०) निष्कारण, निष्प्रयोजन, बिना कारण। (जयो० वृ० १९/२६) | अहेतुवादः (पुं०) अयुक्तिगम्य सिद्धान्त। अहेतुवादस्तु गुरुमुखादेवागम्यते। तत्र युक्तिः प्रवर्तते। (जयो० १९/२६) निःशङ्क और निष्कलङ्क निर्देश युक्त कथन। अहो (अव्य०) हेलया, प्रंशसा, आश्चर्य, विस्मय, विचारविमर्श, प्रसक्ति हे सम्बोधन, इत्यादि कर्म अर्थों में प्रयुक्त होता है। (जयो० १५/८१, ११/१७, १/१९, सुद० ३/३२, ३/१७ १. प्रसक्ति-व्यधापि अस्माभिरहो-(जयो० २०/८०) अहो इति प्रसक्तिः। (जयो० पृ० २०/८०) आश्चर्याभिव्यक्ति (वीरो० १/२०) २. आश्चर्य-सौवर्ण्यमुवीक्ष्य च धैर्यमस्य दूरं गतो मेरुरहो नृपस्य। (वीरो० ३/२) इत्याश्चर्ये (वीरो० १/३२) ३. विचार-विमर्श-विद्यद्य च व्याधि अभूदहो रुषा। (समु० ४/८) हृदि चिन्तामणिमित्यगादहो। (जयो० २५/८५) वृत्तिकार 'अहो' के विषय में स्वयं कहता है-अहो विचारविमर्श (जयो० पृ० २५/८५) ४. हे अर्थे-तुगहो गुणसंग्रहोचिते। (सुद० ३/२२) (अहो प्रभातो जातो-(सुद० ५/१) ५. विस्मयार्थ- अहो किलश्लेषि मनोरमायाम्। (सुद० ३/३८) ६. हेलयार्थे-अहो पुनः प्रत्युपकर्तुमुव। (जयो० ८/६५) ७. खेदार्थे-का दृशा पुनरहो जनमञ्चे। (जयो० ४/२८) अहो किमु (अव्य०) अरे क्या? राज्ञीहाऽहं द्वारिखलु तामीहे गामधिपस्य। अहो किमु। (सुद० ९१! अहोरात्रक (वि०) रात्रिदिवस् वाला। (जयो० १८/५) अह्राय (अव्य०) शीघ्र, त्वरित, तुरंत। अह्नीक (वि०) निर्लज्ज, ढीठ। आ आ-देवनागरी लिपि का द्वितीय वर्ण। यह दीर्ध स्वर है। आ (अव्य०) १. मर्यादा, सीमा, पर्यन्त, तक। आकण्ठमाश्लेषि (जयो० १७/३६) निकट, पास, चारों ओर, ०समन्तात् "नाऽऽमासमापक्षमुताश्वनुवानः।" (सुद० ११८) 'आङ्' अयमभिविध्यर्थ। (स०सि०५/६) 'आ' वा अभिविधि अर्थ For Private and Personal Use Only
SR No.020129
Book TitleBruhad Sanskrit Hindi Shabda Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherNew Bharatiya Book Corporation
Publication Year2006
Total Pages438
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary
File Size14 MB
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