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आनुगत्यं
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आपण:
आनुगत्यं (वि०) [अनुगत+ध्यञ्] परिचय, पहचान। आनुगामिक (वि०) अनुगामी, देशान्तर या भवान्तर में जाता
हुआ, अवधिज्ञान विशेष। 'अनुगमनशीलं आनुगामिकम्।' आनुगुण्य (वि०) हितकर, सुखकर, गुणों के योग्य। आनुग्रामिक (वि०) [अनुग्राम+ठञ्] ग्रामीण, देहाती, गंवार। आनुनासिक्य (वि०) [अनुनासिक+ष्यञ्] अनुनासिकता।। आनुपदिक (वि०) [अनुपद ठक्] अनुसरणकर्ता, पदचिह्नगामी। आनुपूर्वं (नपुं०) [अनुपूर्वस्य भावः ष्यञ्] क्रम, परम्परा,
विधिक्रम। आनुपूर्वी (वि०) क्रम, परम्परा, विधिक्रम अभीष्ट स्थान को
प्राप्त करना। २. अंग एवं उपांग आगम के क्रम का
नियामक। आनुमानिक (वि०) [अनुमान+ठक्] अनुमान प्राप्त। आनुयात्रिकः (०) [अनुयात्रा+ ठक्] सेवक, अनुचर, अनुयायी। आनुरक्तिः (स्त्री०) [आ+अनु+रज्ज्+क्तिन्] राग, स्नेह,
अनुराग, प्रीति। आनुलोमिक (वि०) [अनुलोम ठक्] नियमित, क्रमबद्ध,
अनुक्रम। आनुलोम्य (वि०) [अनुलोम+ष्यज्] उपयुक्त, उचित, नैसर्गिक,
सीधा। आनुवेश्य (वि०) पड़ौसी, समीपवर्ती, गृह के समीप रहने
वाला। आनुषङ्गिक (वि०) [अनुषङ्ग ठक्] १. सहवर्ती, सहयोगी,
२. आवश्यक, अनिवार्य, आपेक्षिक, आनुपातिक। आनूप (वि०) आर्द्र, गीला, जलीय। आनूण्य (वि०) दायित्व युक्त। आनृशंस (वि०) [अनुशंस्+अण्] मृदु, कोमल, दयालु। आनैपुणं (नपुं०) [अनिपुण+अण्] मूर्ख, मूढ, जाड्य। आन्त (वि०) [अन्त+अण्] अन्तिम, अन्त का। आन्तर (वि०) [आन्तर्+अण्] १. आभ्यन्तिर, आत्म सम्बंधी,
२. गुप्त, छिपा, अन्दर। आन्तर-तपः (पुं०) आभ्यन्तर तप, आन्तरि (स्त्री०) अन्तरिक्ष युक्त, दिव्य, स्वर्गीय। आन्तरिक्ष (वि०) दिव्य सम्बन्धी, आकाश प्रदेशी, स्वर्ग सम्बन्धी। आन्तर्गणिक (वि०) [अन्तर्गण+ठक्] सम्मिलित। आन्तर्गेहिक (वि०) [अन्तर्गह्+ठक्] गृहान्तर युक्त, घर में
स्थित। आन्तिका (स्त्री०) ज्येष्ठ भगिनी, बड़ी बहिन।
आन्दोल् (अक०) झूलना, हिलना, स्पन्दन करना। आन्दोल: (पुं०) [आंदोल+घञ्] झूला, हिंडोला, झूलना। आन्दोलनं (नपुं०) [आन्दोल+ ल्युट्] झूलना, हिलना, स्पंदन
करना, कांपना। आन्धसः (०) [अन्धस्+अण्] मांड, चांवल मांड। आन्धसिकः (पुं०) [अन्धस्+ ठक्] रसोइया, आहारपाचक। आन्ध्यं (वि०) अन्धापन। आन्वयिक (वि०) [अन्वय ठक्] सुजात, अभिजात, उत्तम
कुल वाला। आन्वीक्षिकी (स्त्री०) [अन्वीक्षा+ठञ्ङीप्] आत्मविद्या विशेष,
युक्तिसंगत तर्क, विद्या नीति। (वीरो० कृ० ३/१४) आप् (सक०) प्राप्त करना, ग्रहण करना, उपलब्ध करना,
स्वीकार करना। आप (अक०) प्राप्त होना, उपलब्ध होना। सम्भवित्री समाहाहो
विपदाप्ताऽपि सम्पदि। (सुद० १०३) शीतरश्मिरिह तां रुचिरमाप या पुरा नहि कदाचिवाप। (जयो० ४/६०) प्राप्तवानिति वर्तमानार्थे भूतकालक्रिया। (जयो० वृ० ४/६०) काशिकापतिरितो नतिमाप। नतिमाप-लज्जितोऽभूत्। (जयो० वृ० ४/२०) आपि-प्राप्ता (जयो० वृ० ११/८५) विद्याऽनवद्याऽऽप। (जयो० १/६) उक्त पंक्ति में 'आप' का अर्थ व्याप्त होना है।
अभिलषितं वरमाप्तवान् (सुद० पृ० ७३) (३/२९) आप्य (सं०कृ०) (सुद० पृ० ५३) प्राप्तकर। आप्य (सं०कृ०) (जयो० २/६३) स्वीकार्य। 'आप' क्रिया के
कई अर्थ हैं-जाना, पहुंचना, पकड़ लेना, मिलना, व्याप्त
होना आदि। आप (नपुं०) जल, नीर। (वीरो० २/१०) आपकर (वि०) [अपकर+अण] अनिष्टजन्य, दूषण युक्त,
दोषकर, अशुभगत। आपक्व (वि०) [आ। पच्+क्त] १. पक्व रहित, सचित्तगत,
२. रोटी, चपाती। आपक्ष (वि०) पक्ष पर्यन्त, एक पक्ष तक। (जयो० २७/३२,
सुद० पृ० ११८) आपगा (स्त्री०) [अपां समूहः आपम् तेन गच्छति गम इ]
नदी, सरिता। (जयो० २०/४७. सुद०१/१५) आपगाऽपगत
लज्जमिवाङ्क।' (जयो० ४/५५) आपगेयः (पुं०) सरित् पुत्र। आपणः (पुं०) [आपण+घञ्] दुकान, विक्रय वस्तु स्थान।
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