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कञ्जः
२४६
कटोल:
रा२८)
कञ्जः (पुं०) [कम्+जन्+ड] १. केश, बाला।
कटित्रं (नपुं०) अधोवस्त्र, धोती। 'रसालताऽभूत्कुचयोः कटित्रे' कञ्ज (नपुं०) १. कमल, सरोज, २. पीयूष, अमृत, सुधा। (वीरो० ३/२८) (जयो० १३/५९, २/१४०)
कटि-प्रदेश: (पु०) मध्यक. कमर। (जयो० १३/६) कञ्जकः (पुं०) एक पक्षी विशेष। [कञ्च केश इव कायति] कटिबद्धता (वि०) गमनायोद्यत. तत्परता. उद्यमशीलता। 'सर्व कञ्जगति (स्त्री०) कमलगति। (जयो० १३/५९)
एव कटिबद्धतामति' (जयो० २१/३) कञ्जनः (पुं०) १. सूर्य, रवि। २. हस्ति, करि। ३. उदर, पेट। | कटिबद्धभावः (पुं०) तत्परता युक्त भाव (वीरो० ९/१८) कञ्जमुख (नपुं०) कमलमुख। (जयो० १७/११७)
कटि-बन्धनग्रन्थिः (स्त्री०) नाड़ा, नीवि। (जयो० १२/११२) कञ्जलः (पुं०) एक पक्षी विशेष। [क+कलच्]
कटिभागः (पुं०) अवलग्नक, कमर भाग। (जयो० १०/५९) कञ्जोच्चयः (पुं०) कमल समूह का विकास (जयो०१८/४६) कटिमण्डलः (नपुं०) कटि समूह। (जयो० ६/९) कट् (सक०) जाना, आवृत करना, ढकना, प्रकट होना, कटि-मालिका (स्त्री०) करधनी, कंदौरा। चमकना।
कटिमेखला (स्त्री०) करधनी, काञ्ची, कंदौरा। कटः (पुं०) अद्भुत, आश्चर्यकारी। कटाद्भुताः कटाशब्दोऽ- कटिरोहकः (पुं०) महावत।
व्ययोऽद्भुत वाचकः' (जयो० वृ० २४/१८) 'अद्भुतोऽपि कटि-वस्त्रं (नपुं०) नाड़ा, नीवि। कटाव्ययम्' इति वि' २. कलिंजर वृक्ष-(जयो० वृ० कटिशीर्षकः (पुं०) कूल्हा। २१/३०) कट-श्रोणौ शयेऽत्यल्पे किलिञ्जगजगण्डयो' इति कटिश्रृंखला (स्त्री०) करधनी, किंकणी युक्त कंदौरा। विश्वलोचन। (जयो० वृ० २१/३०) ३. कटाक्ष, तिरछी कटिसूत्रं (नपुं०) करधनी, मेखला, काञ्ची, कमरबन्ध। चितवन। (जयो० सुद० ११८) ४. चढ़ाई, ५. कूल्हा , कटी (स्त्री०) कमर। (समु० ७/४) कटी स्यात्कटिमागध्योः कटिभाग। ६. हस्ति गण्डस्थल। ७. बाण, मसालभूमि। ८. इति वि० (जयोc २१/३०) प्रथा, पद्धति।
कटीरः (पुं०) [कट्+ ईरन्] कूल्हों का गर्त। कटकः (पुं०) १. सेना, जनसमुदाय (जयो० ७/८५, (जयो० कटीरकं (नपुं०) [कटीर कन्] कूल्हा, कमर।
१२/१२४) 'वटकं घटकल्पसुस्तनीतः कटकं' (जयो० कटीसूत्रं (नपु०) ०करधनी, कन्दौरा, मेखला, ०काञ्ची, १२/१२४) ३. टटिया, जाली, जो बांस की बनाई जाती। ___०कमरबंध। (दयो० २४) 'बंसकंबीहि अण्णोण्णजणणाए जे किञ्जति घरावणादिवाराणं कटु (वि०) [कट उ] तिक्त, कडुवा, चरपरा, कषैला। ढंकणटुं ते कडया गाम' (धव० १४/४०) ४. मेखला, _ 'कटु मत्वेत्युदवमत्सा' (सुद० वृ०८९) करधनी, रस्सी, ५. वृत्त, घेरा, आवरण।
कटुः (पुं०) तीखापन, तीक्षणता। कटकरणं (नपुं०) चटाई बनाना। 'कटकरणं कटनिर्वर्तकं कटु (नपुं०) दुर्वचन, निन्दा।
चित्राकार मयोमयं पाइल्लगादि' (जैन०ल०७०३१३) कटुक (वि०) [कटु कन्] तीक्षण, कडुवा। (जया० ६/१८, कटकिन् (पुं०) [कटक इनि] पर्वत, गिरि।
९/८४) २. प्रचंड, प्रचुर, तीव्र, चरम। ३. अप्रियकर, कटटः (पुं०) [कटकट लच्] १. अग्नि, आग, २. स्वर्ण, अरुचिकर। ३. गणेश।
कटुकः (पुं०) तीक्ष्णपन, प्रचण्डता। (भक्ति०४६) कटजलं (नपुं०) [कट् + ल्युट] छप्पर, छत।
कटुकता (वि०) कड़वाहट. अक्खड़पन, अशिष्ट व्यवहार। कटाक्षः (पुं०) १. तिरक्षी दृष्टि, तिर्यग् नेत्र, नयनोपान्त, कटुकीटः (पुं०) मच्छर।
अपाङ्गा (जयो० वृ० ३/१०३) २. तीक्ष्ण, कठोर, तेज कटुरं (नपुं०) [कट+उरन्] छांछ, मट्ठा, तक्र।
(सुद० १/४०) 'स्मरस्येव यत्कराक्षः शरः' (सुद० १/४०) कटोरं (नपुं०) मिट्टी का पात्र, सकोरा। कटाक्ष बाणः (पुं०) तिर्यग् बाण, तिरछे तीर। (सुद० वृ०१२३) कटुकिः (स्त्री०) कटुवचन, कर्कश वचन, मृदुतारहित (वीरो० कटाक्ष-शरः (पुं०) तिर्यग् बाण।
२२/३२) कटाहः (पुं०) १. कढ़ाई, २. टीला, ३. गत।
कटोलः (पुं०) [कट ओलच्] १. चरपरा, कटुक। २. नीच कटिः (स्त्री०) [कर इन] कमर।
पुरुष।
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