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कड़कर
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कङ्करं (नपुं०) मट्ठा, छांछ। [कं सुखं किरति क्षियति ] कङ्कालः (पुं०) अस्थिपञ्चर, शरीर का ढांचा, हड्डियों का समूह |
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कङ्कालय: (पुं० ) [ कंकाल य+क] देह, शरीर । कङकु: (स्त्री) कंकु, सिंदूर, सेंदुर, विवाहित स्त्रियों की माँग में भरने का सेंदुर ।
ककेल: (पुं० ) [ कंक+एल्ल] अशोक वृक्षा ककल: (पुं०) घोरडू, नहीं सीझने वाला मूंग (वीरो० १७/३३)
ककेली (स्त्री०) आशोक वृक्ष कङकोली (स्त्री०) नाम विशेष
ककृत कंङ्गण ( नपुं०) अलंकृत कंगन । (वीरो० ६ / २९ ) कङ्गुलः [कंगु+ला+क] हाथ, कर।
कचच्छलं (नपुं०) केशो के कारण, कन्जल समूह | कचानां केशानां छलाद् बभूव। (जयो० वृ० १/६३)
कचपाली (स्त्री०) केश समूह, केशराशि कचानां केशानां पाली परम्परा (जयो० १४/१०)
कचसंचयः (पुं०) केशबन्धन, केशपाश कचानां सञ्चयः केशपाशः।
कचसन्निचय: (पुं०) केशराशि, केशसमूह कचानां केशानां सन्निचयः समूहो । (जयो० २६/७)
कच: (पुं० ) ( कच+अच्] १. बाल, केश। २. बंधन, आवरण, पट्टी |
कचङ्गनं (नपुं०) कर रहित बाजार, मण्डी । कचङ्गल (पुं०) समुद्र, सागर, उदधि कचवृन्द (वि०) केशराशि (वीरो० २/२०) कचाकचिः (अव्य० ) एक दूसरे को पकड़ना, आपस में बा
पकड़ना ।
कचादुर (पुं०) जल कुक्कुट
कचोपचार: (पुं०) केशों के उपचार (सुद०२/७) कच्चर (वि०) बुरा, अभद्रकारी, दुष्टतापूर्ण। मलिन, कलंकित । कच्चित् (वि०) [कं+चित्] प्रश्नवाचकता, प्रायः, ऐसा । कञ्चिदपि (अव्य०) कोई भी, कितना भी । (वीरो० १/१६ ) कच्छः (पुं०) १. तट, किनारा, क्षेत्रवर्ती, समीपवर्ती प्रदेश। (जयो० ५) २. कर्मदभाग, कीचड़ प्रदेश, पंकभूमि । कच्छप: (पुं०) कछुआ, कूर्म । कच्छपपृष्ठवत् (पुं०) कछुए की पीठ की तरह। (जयो० वृ०
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कझुकिराजः
कच्छप- रिगत- दोषः (पुं०) आचार्य वन्दना का दोष, पीछे चलते हुए वन्दना करना । कच्छपी (स्त्री०) कछुवी । कच्छा (स्त्री०) झींगुर ।
कच्छुः (स्त्री०) [ कष्ऊ, छ आदेश: ] कंडू, खाज, खुजली कच्छुर (वि०) [कच्छूर] कंडुयुक्त, खुजली युक्त । २. लालची, लम्पटा
कज्जलं (नपुं०) काजल, कालिमा, अगुरु, अंजन। (जयो० वृ० १४ / ९२ ) (जयो० ३/५४ ) [ कुत्सितं जलमस्मात् प्रभवति को कदादेश: ] 'स्नेहवर्तिकथा निःसृतेन कज्जलेन शरावादयो मलिना भवन्ति' (जयो० वृ० ६ / २३६ ) प्रसादोत्पन्न- नयनजलविन्दवस्तन्निभानाम्- मुदश्रवोऽपि सकज्जला भवन्ति । (जयो० वृ० ६ / १३०) कज्जलधूमः (पुं०) कज्जल की बहुलता (जयो० १/६३) कज्जलरागः (पुं०) कालिमा वाला राग । कज्जलरोचकः (पुं०) दीवट, दीपस्टेंड । कज्जलस्थित (वि०) कज्जल की बहुलता (जयो०] १/६२) कज्जलितः (वि०) कालिमा युक्त ।
कञ्च (सक०) १. बांधना, जकड़ना, २. स्फुरित करना। कञ्चनं (नपुं०) स्वर्ण, सोना। (सुद० ७१) कञ्चन-कलश: (पुं०) स्वर्ण कलश। (सुद० ७१ ) कञ्चारः (पुं०) [ कम्+चर् णिच्+अच्] १. सूर्य, रवि, २.
मदार लता।
कचिद् (अव्य०) कोई भी (जयो० १/२) कञ्चुक: (पुं० ) [ कञ्च + उनच्] १. कवच निर्माण-जयो० ६ / १०६ (जयो० १२) २. सर्प केंचुली, ३. परिधान, वस्त्र ४ अंगरखा, चोगा, चोली, अंगिया ।
कञ्जुकमुञ्चनं (नपुं०) केंचुली छोड़ना (जयो० २५/५३) कझुकद्वदय (पुं०) कुछ वस्त्र हरण करने वाला (जयो० १६ / ६३) कञ्चुकं कुचवस्त्रं हरतीति । कझुकालुः (पुं०) सर्प, सांप
कञ्चकित (वि०) [कशुक इतच्] कवचधारी। कञ्चुकिन् (वि० ) [ कञ्चुक + इनि] १. कवच, (वीरो० ५ / ६, जयो० १/१ ) २. द्वारपालनी, अंतपुर की सेविका, वृद्ध सेवक। सौविद (जयो० १३/३८)
कञ्चुकिवर: (पुं०) बुद्धिशाली सेवक। (जयो० ४/४१ ) कञ्चलिका (स्त्री०) अंगरखा, चोगा चोली । कझुकिराज (पुं०) खोजा, सेवक, (जयो० ४/५५)
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