________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अपनयनं
६८
अपरदिशा
अपनयन (नपुं०) [अप+नी+ल्युट] कर्त्तव्य निर्वाह, पकड़ना,
ले जाना। अप+नी (सक०) दबाना, नष्ट करना, दूर करना, निराकरण
करना। (जयो० ६/६३) पुरुषोत्तमयोग्यामपनिन्युः (जयो० ६/६३) अपनिन्यु:-अपनीतवंता। प्रतिष्ठितानात्मतमोऽपनेतुम।
(भक्ति वृ० ३) अपनोदः (अप+नुद्+घञ्) हटाना, ले जाना, दूर करना। अपपाठः (पुं०) अशुद्ध पाठ, स्वररहित, पठन, अनुच्चारण। अपपात्र (वि०) अपात्र, निम्न पात्र। अपपात्रित (वि०) पात्रता रहित पात्र। अपपानं (नपुं०) [अप+पा+ल्युट] अपेय, अपान, पानयोग्य
नहीं। प्रदूषित पेय पदार्थ, रस विकृत पेय। अपूत (वि०) अडोल। निश्चल, स्थिर। अपप्रजाता (वि०) [अपगतः प्रजातो यस्याः] गर्भपात युक्त
स्त्री। अपभय (वि०) निडर, निर्भय, निश्शंक। अपभरणी (स्त्री०) [अप+भू+ल्यूट+ङीप्] अंतिम नक्षत्र पुंज। अपभाषणं (नपुं०) [अप+भाष+ल्युट्] अपयश, भर्त्सना,
कुप्रवचन, कुवचन। अपभीतिः (स्त्री०) भयवर्जित, भयमुक्त, निर्भय। रङ्कः
पापपवेरपभीतिस्तिष्ठति किमुत विचित्रम्। (जयो० २/१५७) अपभूषणं (नपुं०) अपदोष, दूषणाभरण (जयो० १/२९ अपभूषणत्व (वि०) भूषणता का अभाव। (जयो० १/२९) अपभ्रंशः (पुं०) [अप+ श+घञ्] गिरना, नीचे जाना, पतन,
शिष्टाचार शून्य। अपभ्रंशः (पुं०) अपभ्रंश भाषा, जिसमें उकार की बहुलता
होती है, यह प्राकृत के पश्चात् विकास को प्राप्त होती
है, प्राचीन हिन्दी का विकास इसी से हुआ। अपभ्रंशवेदिन (वि०) अस्पष्टभाषी। (जयो० २८/२७) अपमः (पुं०) क्रान्तिवलय, घुमाव युक्त चक्र। अपमर्दः (पुं०) [अप+मृद्+घञ्] धूल, रज। अपमर्शः (पुं०) [अप+मृश्+घञ्] छूना, स्पर्श करना। अपमल (वि०) दोष रहित, मलयुक्त, निर्दोष। कमलामिवा
पमलाम्। (जयो० ६/६३) अपमार्गः (पुं०) [अप+मृग+घञ्] लघुमार्ग, अपथ, लघुपथ,
संकरा मार्ग, तंग गली, छोटा रास्ता। अपमार्जनं (नपुं०) [अप+मार्ज+ ल्युट्] मांजना, साफ करना, |
स्वच्छ बनाना।
अपमानः (पुं०) [अप+मन+घञ्] अनादर, असम्मान, निरादर।
अतोऽपमानादतिदु:खितोमही सुरः-परित्यज्य तनुं वभावहिः।
(समु० ४/५) अपमानित (वि०) निरादर युक्त। (समु० ४/५) अपमुख (वि०) नीचे की ओर मुंख, अधोमुख। अपमूर्धन् (वि०) शिर विहीन। अपमृत्युः (पुं०) असामयिक मरण। (जयो० १९/७७) अपमृत्युमंत्र (पुं०) मृत्यु निवारण मंत्र। णमो विडोसहिपत्ताणं
(जयो० १९/७७) अपमृत्यु-विनाशन (वि०) मृत्य निवारण। णमोत्थु खिल्लोसहिप
त्ताणं (जयो० १९/७६) अपमृषित (वि०) [अप+मृष+क्त] अस्पष्ट, अवकत्वता। अपयशस् (पुं०) अकीर्ति, दुर्यशस्, कलंक, (जयो० वृ०
१२/८०) लाभालाभौ जनुमत्युर्यशोऽपयश एव च। (दयो०१०) अपयशः परिणति (स्त्री०) अपकीर्ति, अकीर्ति। वै-परिणाम
कीर्तिरपयशः परिणतिः। (जयो० वृ० ६/४३) अपयानं (नपुं०) [अप+या+ल्युट] भागना, पलायन करना,
वापस जाना, दूर होना। अपयोगः (पुं०) दुरुपयोग, उपयोग न होना। अपयोगो दुरुपयोग,
स एव गहनं दुःखमेव। (जयो० वृ० ४/४३) अपर (वि०) १. अद्वितीय, अप्रतिद्वन्द्वी, अनुत्तर, अनुपमा तव शिक्षा समीक्षा परा नाभिन्। (सुद०७४) २. दूसरा, अन्य, इतर, अतिरिक्त, एक से एका किमपरैरधिकाधिककातरैर्विषयतापसमुत्थतृषातुरैः। (समु० ७/१०) मुखेसु सत्तां सुतरां समाप सदञ्जनं चापरपार्थिवानाम्। (जयो० ६/११३) अन्य-परकरोपलेखकोऽपरपुरुषस्य सहाय्येन लिखति। (जयो० २/१३) दूसरा-स्यादत्र कश्चित्त्व परो हि रोगः। अपरोऽत्र नृपः। (जयो० २३/५२) (सुद० १०७) पर-भुवि सत्या अलमपरेण।
(सुद०८८) अपरक्त (वि०) [अप+र+क्त] रक्त रहित। अपरथा (अव्य०) पुनः, फिर से, ०पश्चात्, (वीरो० २/४७)
अन्यथा। 'सर्वतो ह्यपरथाऽऽगसां निधिः। (जयो० २/८४) अपरत्र (कि०वि०) [अपर+त्रल] दूसरे स्थान पर, अन्यत्र,
कहीं। अपरदिशा (स्त्री०) पश्चिमदिशा। न्यात्माधिपेऽपरदिशिं प्रतियादि
राजन्। (जयो० १८/३६)
For Private and Personal Use Only