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अपटी
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अपनयः
अपटी (स्त्री०) [अल्प: पटी] पर्दा, कनात। अपटु (वि०) मंद, अदक्ष, अनिपुण। अपठ (वि०) पढ़ने में असमर्थ। अपण्डित (वि०) मूर्ख, अज्ञानी, बुद्धिहीन। अपण्य (वि०).अमूल्य, बिक्री हीन। अपतनु (स्त्री०) कृश शरीर, शरीर रहित। अपगता दूरवर्तिनी
तनुः शरीरं। (जयो० २२/५) अपतम (वि०) अन्धकार अभाव, अन्धकार रहित, प्रसूति
स्थान में अन्धकार का अभाव। (सुद० ३/११) कुलदीपयशः
प्रकाशितेऽपतमस्यत्र जनीजनैर्हिते। (सुद० ३/११) अपतानकः (पुं०) [अप+तन+ण्वुल्] मूर्छा रोग, मृगी रोग। अपति (वि०) अविवाहित, जो पति रहित हो। अपतुषार (वि०) हिम रहित, शीत रहित। (जयो० २२/८) अपतीर्थं (नपुं०) कुतीर्थ, खोटा तीर्थ स्थान, अपवित्र स्थान। अपत्यं (न०) [न पतन्ति पितरोऽनेन-न+पत्+यत्] संतति,
सन्तान, प्रजा। अपत्रता (वि०) वाहनविहीनता। (जयो० वृ० १७/४८) दृढंच
यून: करवारमाप्त्वाप्यपत्रतावापि किलाकुलेन। । अपत्रप (वि०) त्रपावर्जित। अपत्रपः पत्रं वाहनं पाति स पत्रपो
न पत्रयोऽपत्रपः अथवा त्रपावर्जितः सन् (जयो० वृ०८/५१) अपत्रपः (पुं०) सन्नपरोऽत्र वीरः। जयो० ८/५१ कन्दर्प
स्विदपत्रपाः। (जयो० ३/१०५) ०सत् रहित। अपनप (वि०) निर्लज्ज, लज्जाशून्य। (जयो० ३/१०५) अपनपत (वि०) निर्जल्लता, सङ्कोचवर्जितता। स्वयं तु पत्रं
पातीति पत्रयो न पत्रयोऽ पत्रपस्तस्य भावस्तया युक्तोऽपि
सन् पत्ररहितोऽपि भवन्। (जयो० वृ० ३/३५) अपनपता (वि०) १. लज्जालुभावता, निर्लज्जता। किलापत्रपतां
लज्जालुभावं उमामवाप्य महादेवोऽपि च श्रयन्ति। (जयो०
२४/२३) गत्वाऽपत्रपतायाम्। (सुद० वृ० ११२) अपत्रपा (वि०) लज्जाभाव निर्लज्जता, सोचता। (जयो०
वृ० १७/१९, ६/११७) अपनपा (वि०) पल्लवभावरहित, पत्रविहीनता। त्रपापि न
पत्राणि पाति रक्षतीत्यपत्रपा पल्लवभावरहिता स्यात्। (जयो०
वृ० १७/१९) अपथ (वि०) मार्ग रहित, कुमार्ग, उत्पथगामी। किमुद्यपथो
गुह्यलम्पटः सञ्चरत्यपि। (जयो० २/१३२) अपथ्य (वि०) ०अयोग्य, अनुचित, असंगत, (सम्य० ९०)
अस्वास्थ्यकर, रोगजन्य, व्याधिजनक।
अपथ्यवत् (वि०) व्याधिजनक के समान (सम्य० ९०) अपदः (पुं०) ०पैर का अभाव, अनुरुभंग। ०एक पैर।
(सूतोऽपदो येन रथाङ्गमेक) (जयो० १/१९) अपदः (पुं०) १. अयोग्य स्थान, आवास का अभाव। (जयो०
२/१०९) सहेत विद्वानपदे कुतो रतम्। (जयो० २/१४०) २. अनुचितमार्ग-नि:स्नेहतात्मनि संवुवाणस्तथापदे संकलित
प्रयाणः। (जयो० ८/७०) अपदेऽनुचिमार्ग। (जयो० वृ० ८/७०) अपदक्षिणं (अव्य०) बाईं ओर, वामभूत। अपदम (वि०) आत्म संयम रहित। अपदानं (नपुं०) [अप+दा+ल्युट्] उत्तम कार्य, पवित्राचरण,
स्वच्छ चर्या। अपक्षर्थः (पुं०) सत्ता का अभाव, वस्तु तत्त्व की कमी। अपदिशं (अव्य०) मध्यवर्ती प्रदेश में। अपदूषणं (नपुं०) दूषण का अभाव। (जयो० ७/२९) अपदूषत्व (वि०) दूषणता रहित, किसी प्रकार का दूषण नहीं।
(जयो० १/२९) दयालुतां चाप्यपदूषणत्वं। अपदेशः (पुं०) [अप+दिश्+घञ्] ०उपदेश, ०बहाना, छल,
०कारण, ०ब्याज, चिह्न, स्थान, दिशा। (जयो०
११/४६) अपदेशतः (वि०) बहाने, ब्याज, कारण, चिह्न। (जयो० ११/४६) अपदेशतः (वि०) इधर-उधर। मुहुरुद्गिलनापदेशतस्त्वतिपातिः।
(सुद० ३/१८) अपदोष (वि०) दोष रहित, दोष वर्जित। न त्वाप
सापदोषाऽप्यनङ्गरुपाधियं भाभिः। (जयो० ६/३१) पुनरपि
द्रष्टुमभूदपदोषा। (जयो० १४/८) अपदोष (वि०) निर्दोष, पक्षपातरहित। रोषो न तोषो जगदेकपोष
ऋषेर्भवत्येव भवेऽपदोषः। (जयो० २७/२१) अपदोषः
पक्षपातेन रहितो। (जयो० वृ० २७/२१) अपद्रव्यं (नपुं०) अनिष्ट वस्तु, कुपदार्थ। प्रदुषित पदार्थ,
प्रदूषित। अपद्वारं (नपुं०) ०अतिरिक्त द्वार, ०अन्य द्वार। मलद्वार/वातावरण
करने वाली वस्तु। अपधूम (वि०) धूम रहित। स्वच्छ, ०शुभ्रा अपध्यानं (नपुं०) आर्तध्यान। अपध्वंसः (पुं०) ०अध: पतन, गिरावट, लांछन, निम्नगति। अपध्वस्त (वि०) [अप+ध्वंस्+क्त] अतिपिष्ट, अभिशप्त,
घृणित, निन्दित। अपनयः (पुं०) [अप+नी+अच] हटाना, निराकरण करना,
दूर करना।
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