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अपकर्षणकी
अपट
सत्तागते कर्मणि बुद्धिनावाऽपकर्षणोत्कर्षणसंक्रमा वा। (समु० |
८/१५) कम असर कर देने का नाम 'अपकर्षण' है। अपकर्षणकी (वि०) मायाजन्य विद्या। (जयो० वृ० ५/५) अपकर्षणविद्या (स्त्री०) माया, कपट विद्या। कन्यका
यदपकर्षणविद्या। (जयो० ५/५) अपकारः (पुं०) [अप+कृ+घञ्] दुःखोत्पादन, आघात, कष्ट,
अविनय, अपकारि, उत्पीड़न, दुष्टता। (वीरो० १/३३) अपकारक (वि०) [अप+कृ+ण्वुल] कष्टप्रद, हानिकारक,
अपमानजन्य। अपकारणं (नपुं०) निवारण। (जयो० १९/७९) णमो वचबलीणं
यदजममारीनिवारणम्। णमो काय बलीणं च गोरोगस्या
पकारणम्॥ (जयो० १९/७९ अपकारपदा (वि०) अपकीं। (जयो० ५/५९) अपकारि (वि०) अपकार करने वाला, अपमान कर्ता। अपकारिणी (वि०) विनाशकारी। जडताया अपकारिणीमतः। 1
(सुद० वृ० ५४) अपकृ [अप+कृ] उपकार करना। अपकृति (स्त्री०) [अप+कृ+णिनि] आघात, कष्ट, दु:ख,
अपमान। अपकृष (सक०) [अप+कृष्] ग्रहण करना, लेना।
"लताप्रतानस्य भुवोऽपकृष्य" (जयो० १/५०) अपकृष्य
गृहीत्वा। (जयो० वृ० १/५०) अपकृष् (सक०) [अप कृष्] हटाना, दूर करना, खींचना,
अपकर्षण करना। 'अपकर्षति स्म शिविकावाह।' (जयो०
६/४९) 'समयं स्वरूत्पन्नरुचोऽपकृष्टम्' (वीरो० २/४२) अपकृष्ट (वि०) [अप+कृष+क्त] खींचा गया, बाहर निकाला,
दूर हटाया गया। अपक्व (वि०) कच्चा, अपच, अजीर्ण। (जयो० २/१५२) अपक्वमृण्मयभाजनं (नपुं०) आमपात्र, कच्चापात्र। (जयो०
वृ० २/१५२) अपक्रमः (पुं०) [अप+क्रम+घञ्] हटना, भागना, पलायन करना। अपक्रमः (पुं०) दुष्क्रम, दुर्मत। (जयो० १२/४) वृषचक्रम
पक्रमप्रभाव। (जयो० वृ० १२/४) अपक्रमप्रभावः (पुं०) दुर्मतप्रभाव, दुष्क्रम प्रसार। (जयो० वृ०
१२/४) अपकीर्तिः (स्त्री०) दुर्यश, दुष्प्रभाव। (जयो० २/९४) अपकोशः (पुं०) [अप्+कृश+घञ्] भर्त्सना, निन्दा, गाली,
अपमान शब्द।
अपक्ष (वि०) १. पक्षहीन, पंख रहित। २. पक्षाभाव, विपक्ष।
३. निष्पक्ष। अपक्षयः (पुं०) [अप+क्षि+अच्] ह्रास, नाश, विनाश, अभाव। अपक्षेपः (पुं०) [अप क्षिप्+घञ] नीचे फेंकना, नीचे रखना। अपगत (वि०) रहित, विहीन। (जयो० ११/५५) "आपगाऽपगत
लज्जमिवाङ्कम्" अपगत-लज्ज (वि०) लज्जा रहित, निःसङ्कोच। (जयो० ४/५५) अपगतवेद (वि०) वेदन रहित, त्रिविध पुं०, नपुं०, स्त्री, वेद रहित। अपगति (स्त्री०) [अप+गम्+क्तिन्] अशोभन गति, दुर्भाग्य,
अविनीता उद्धतामथापगतिं भगवदागमे तु॥ (जयो०
२३/८७) अपगरः (अप+गृ+अप्), निन्दा, गर्हा। अपगुणं (नपुं०) दुर्गुण, खोटे परिणाम। नाबन्धमवाप सापगुणदस्यु।
(जयो० ६/९७) अपगण दस्य (वि०) दुर्गणों को हरण करने वाली। 'अपगणानां
दुर्गुणानां दस्युहीं'। (जयो० वृ०६/९७) अपघनं (नपुं०) १. मेघ रहित, मेघविरोधिनी, 'अपघन रुचोचिता
या'। (जयो० ६/७६) अपघना धनहीना मेघविरोधिनी।
(जयो० वृ० ६/७६) २. अवयवयुक्त-अवघनेषु सर्वेष्ववयेषु। अपडूपात्री (वि०) कीचड़ रहित। (वीरो०२१/६) अपचयः (पुं०) [अप+चि+अच्] ह्रास, न्यूनता, कमी, छीजन,
गिरावट, परिश्रम हीन। अपचरितं (नपुं०) [अप+च+क्त] दोष, दुष्कृत्य, दुष्कर्म। अपचारः (पुं०) [अप+च+घञ्] मृत्यु, अपराध, दोष, अभाव।
दुराचरण, क्षति। अपचारिन् (वि०) [अप+च+णिनि] दुष्ट, दुराग्रही, दुष्टकर्मी। अपचितिः (स्त्री०) [अप+चि+क्तिन्] १. हानि, नाश, व्यय।
२. प्रायश्चित्त, सम्मानन, पूजन, आदर। अपच्छत्रं (वि०) छत्र विहीन, छतरी रहित। अपच्छाय (वि०) छाया रहित, कान्तिहीन। अपच्छेदः (पुं०) [अप+छिद्+घञ्] हानि, नाश, व्यय। अपजयः (पुं०) [अप+जि+अच्] हार, पजिय। अपजात (वि०) [अप+जन+क्त] कुपुत्र, माता-पिता से हीन। अपजित (वि०) पराभूत, पराजय। अपजितस्य ममेदमुपायन।
(जयो० ९/२१) अपज्ञानं (नपुं०) छिपाना, गुप्त रखना, मेटना, मुकरना। अपट (वि०) पट रहित, पर्दा हीन।
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