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कोरकं
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कौटलिकः
कोरकं (नपुं०) मञ्जरी, कली. अर्ध विकसित पुष्प।
प्रघणं तदेते' (जयो० ३/२५) कोषादपि-नालकादपि (जयो० कोरित (वि०) [कोर इतच] १. कली सहित, अंकुरित। २. वृ०३/२५) चूर्ण युक्त।
कोषधर (वि०) धन संग्रह सहित। कोलः (पु.) [कुल अच्] १. सूकर, वराह। २. गोद, अंक, कोषस्थलं (नपुं०) कोष स्थान, भण्डार गृह। (समु० ४/५)
३. आलिंगन। ४. सन्तरण काष्ठ, पतवार, नदी पार होने कोषाध्यक्षः (पुं०) कोषाधिपति, कुबेर (वीरो० ८/२) का साधन-'स्मर-सिन्धु-कोल:' (जयो० १७/३१)
द्रविणाधिप। (दयो० १/४४) कोलम्बकः (पुं०) [कुल अम्बच् कन्] वीणादण्ड, वीणा कोषान्तरुत्थालिकः (पुं०) अपने कोष से उड़ने वाले भ्रमर।
ढांचा। 'युवतरुरसीति रागतः स तु कोलम्बकमवमागतम्' (जयो० १/८२) 'कोषान्तरुत्थाः कुसुमनालमध्या(जयो० १०/२०)
दुद्गतायेऽलय एवरलिका भ्रमरा:' (जयो० वृ० १४८२) कोला (स्त्री०) [कुल। णा+टाप्] बदरी।
कोषापेक्षी (वि.) १. अखण्ड कोषधारी। २. उदर पोषण को वा (अव्य०) और कौन। (जयो १४९
करने वाला। 'कोषं द्रविणा गारपेक्षत इति कोषापेक्षी कोलाहलं (नपुं०) शोरगुल, (समु० २/२४) एक साथ बोलने निधानोद्धारकर इत्यर्थः' (जयो० ७० ६/२४) वालों का स्वर।
-कोषापेक्षी-स्वोदरपोषणमप्यपेक्षते' (जयो० वृ० ६/२४) कोल्लागकारी (वि०) नाम विशेष, गणधर नाम। (वीरो० १४/५) कोष्ठः (पुं०) [कुष्+थन्] हृदय फैफड़ा। पेट, उदर, २. कोविद (वि०) [कु-विच ते वेत्ति-विद् क] विशारद, बुद्धिमान, आभ्यन्तर भाग, ३. अन्नागार।
(जयो० ९/३६, (जयो० १९/३०) विद्वान्, कुशल, प्रवीण, कोष्ठं (नपुं०) प्रकोष्ठ, परकोटा, चारदीवारी। २. भण्डार गृह।
गुणी। 'न को विदानानुमतस्त्वदाशी (जयो० १९/३०) कोष्ठकः (पुं०) [कोष्ठ कन्] १. भण्डार गृह, २. प्रकोष्ट, कोविदारः (पु०) एक वृक्ष विशेष. कचनार तरु।
परकोटा। कोविदग्रणी (वि०) विद्वानों में प्रवीण। (जयो० १९/८५) कोष्ठकं (नपुं०) प्रकोष्ट, स्थान। (वीरो० १३/६) कोशः (पुं०) [कुशा घञ्] १. भण्डार, समूह, ढेर। (सम्य० कोसलः (पुं०) कौशल देश।
९४) २. तरल पदार्थों के रखने का पात्र। ३. म्यान, कोसला (स्त्री०) अयोध्या। आवरण, स्थान, पात्र। ४. निधि, संग्रह, शब्दार्थ संग्रह, कोहलः (पुं०) [को हलति स्पर्धते] वाद्ययन्त्र। शब्द संचय, शब्दावली।
कोहलफलं (नपुं०) मधूक फलक, महुआ का फल। कोशलिकं (नपुं०) [कुशल+ठन | घूस, रिश्वत।
___'निर्जीर्ण-कोहलफलच्छविरेवमासीत्' (जयो० वृ० १८/२५) कोशातकिन् (पृ०) [कोश+अत क्वुन] व्यापार, वाणिज्य, कौ (स्त्री०) पृथिवी, भूमि, धरा, भ। 'चित्तेशयः को जयताद सौदागर।
यन्तु' (वीरो० १४/१८) (जयो० १/७४) कोशित् (पुं०) आम्रवृक्षा
कौक्कटिकः (वि०) [कुक्कुट ठक्] मुर्गे पालने वाला। कोषः (पुं०) [कुप अच] भण्डार, आगार समूह, संग्रह, कौक्ष (वि०) [कुक्षि+अण] कोख से बंधा हुआ।
निधि, स्थान, खजाना! (समु० ४.११, जयो० वृ०६/२४) कौक्षेय (वि०) [कुक्षिा ढञ्] उदरजनित, पेट से उत्पन्न होने (जयो० ४/४६, द्रविणागारमपेक्षते स विश्वतोरोचनमृद्धदेश वाला, क्षुक्षि से उत्पन्न होने वाला। कोषं दधौ श्री धसन्निवेशम्' (जयो० १/१७) 'विश्वतोरोचनं कौक्षेयकः (पुं०) [कुक्षौ बद्धोऽसि: ढकञ्] खङ्ग, तलवार, सर्वेषां रुचिकारकम्' (जयो० वृ० १/१७) 'विश्वरोचन' असि।' नाम कोपं यथेति' (जयो० वृ०१/१७) शब्दशास्त्र (वीरो० कौङ्कः (पुं०) [कुङ्क+अण] एक देश विशेष। २/४४) २. निधान, खगावरण-वाजिनं भाति तु भजति कौट (वि०) [कूट+अञ्] निजगृहगत, अपने घर में रहने वाला। मुञ्चति कोषं च मुञ्चति ह्यराति:' (जयो० ६/१११) 'कोषं कौटः (पुं०) असत्य, मिथ्या, छल। खङ्गावरणं' (जयो० वृ० ६/१११) प्लान विशेष, जिसमें | कौटकिकः (पुं०) [कूट+क्तन्] बहेलिया। तलवार को रखा जाता है। ३. नाल, कली, अर्ध विकसित | कौटलिकः (पुं०) [कुटिलिकया हरति मृगान् अङ्गारान् वा] पुष्प। कमलदण्ड-'शिरीष-कोषादपि कोमले ते पदे' वदेति शिकारी, लुहार।
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