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कोटि
३१८
कोरक:
कोटि (स्त्री०) १. धनुष का सिरा, धनुष का मुड़ा हुआ हिस्सा। कोपक्रमः (पुं०) रोष युक्त मनुष्य, रुप्टजन।
२. अग्रभाग-'परं गुञ्जा इवा भान्ति तुलाकोटिप्रयोजना: कोपदेशः (पुं०) रक्त प्रकोप, रक्तचाप। 'प्रागुत्थितो वियति (जयो० वृ०२/१४६) ३० पक्ति-'गगनाञ्चानां कोटिह्वेषा' शोणितकोपदेशः' (जयो० १९/२२) 'कोऽरुणवर्णस्तस्यो(जयो०६७)
पदेशः' (जयो० वृ० १८/२२) कोटिक (वि०) सिरा वाला, अग्रभाग वाला।
कोपन (वि०) [कुप्+ल्युट] क्रोधी, प्रकोपी, रुष्ट, रोषयुक्त। कोटिशः (अव्य०) [कोटि-शस्] करोड़ों, असंख्य। कोऽपि (अव्यः०) काई भी। (जयो० ४/५२) (सुदc १००) कोटीरः (पु०) [कोटिमोरयति ई+अण्] १. मुकुट, २. शिखा, - कोपिन् (वि०) [कोप- इनि] १. क्रोधी, रुष्ट, रोषयुक्त। चोटी।
(दयो० २/१२) "स्मरः शरद्यस्ति जनेषु कोपी' ('वीरो० कोट्टः (पुं०) [कुट्ट घञ्] किला, दुर्ग।
२१/१३) २. चिड़चिड़ा, त्रिदोष विकार युक्त। 'कण्ठे कोट्टवी (स्त्री०) दुर्गादेवी, [कोट वाति वा+क]
कृपाणं प्रकरोतु कोपी' (दयो० २/१२) कोट्टारः (पुं०) [कुट्ट+आरक्] किलेबंदी वाला नगर, परकोटे कोपवती (वि०) रोषस्थली। (दयो० वृ०१७/१०३) ___घेरे युक्त नगर। २. कुआं, तालाब।
कोपविधिः (स्त्री०) हनन भी प्रवृत्ति (सुद० १०६) राज्ञः कोण: (पुं०) [कुण् करणे घञ्] १. किनारा, कोना, बिन्दु, श्रेष्ठिवराय कोपविधिवाक सर्ग: स्वयं सत्तमः।
सिरा २. एकान्तवास-रणाय दोणाय (जयो० वृ० १६/३०) कोपीनं (नपुं०) खण्डवस्त्र, लंगोटी। 'मुनिः कोपीनबासास्स्या'रहस्यं लब्धमेकान्तवासायेत्यर्थः' (जयो० १६/३०) 'रण: नग्नो' वा ध्यानतत्परः। (दयो० २४ कोणे कणे युद्धे' इति वि ३. वृत्त का बिन्दु।
कोपीति (अव्य०) ऐसा कोई भी (जयो० वृ०१/२०) कोणकुणः (पुं०) खटमल।
कोऽप्यपूर्वो हि -कोई अपूर्व ही (सुद० १०८) कोणातिष्ठित (वि०) कोने में बैठा हुआ। (वीरो० ९/१४) कोमल (वि०) [कु। कलच्] १. स्निग्ध, (जयो० ३/११३) कोणाकोणि (अव्य०) एक कोने से दूसरे कोने तक। एक-दूसरे 'पीत्वा स्रुति कोमलरूपकायाम्' २. मृदुस्पर्श (जयो० वृ० कोने तक।
२२/७२) (जयो० ११/९) ३. निर्मल, ४. मृदु, सुकुमार, कोणितत्त्वं (नपु०) संचार, प्रवाह। लालाविलं ०सरल, ऋजु। (सुद० १००)
शोणितकोणितत्त्वान्न जातु रुच्यर्थमिहैमि तत्त्वात्। कोमलकंभ (नपुं०) कमल रेशे। कोण्डिन्यः (पुं०) नाम विशेष। (हित०१४) (सुद० १०२) कोमल-पल्लवती (वि०) सुकुमारता युक्त। कोमलाक्षरवती। कोदण्डः (पुं०) [कोः शब्दायमान दण्डो यस्य] धनुष, धनुः (जयो०२२/४८) कोमला: श्रवणप्रियाः पदां सुवन्तानां
'कोदण्डं धनुरुदेतु' (जयो० वृ० १६/१७) २. स्थान विशेष लवाः ककारादयस्तद्वती (जयो० वृ० २२/४८) 'कोमलाश्च (जयो० वृ० १६/१७)
ते पल्लवाः पत्राणि तदवतीति' (जयो० वृ० २२/४८) कोदण्डकः (पुं०) १. भू प्रदेश, २. धनुष-कोदण्डकं कर्णपयोभुवा । कोमल-रूपः (पुं०) स्निग्ध रूप, रमणीय रूप।
न। (जयो० १७/७६) 'कोदण्डः कार्मुके भुवि इति कोमल-रूप-काय: (पुं०) रुचिरकाया स्वरूप। 'कोमलं स्निग्धं विश्वलोचन:' (जयो०१७/७६)
च तद्रूपं तदेव वायो यस्यास्तां' (जयो० १० ११/९) कोदण्डधर (वि०) धनुष पर बाण रखने वाली। 'कोदण्डं कोमलाङ्ग (नपुं०) कोमल अंग, लावण्य युक्त शरीर। (जयो०
धनुर्धरन्तीति स्त्री पृषत्परकोदण्डधरा' (जयो० वृ० १०/६९) । वृ० १२/१२६) । कोदण्डभृत् (वि०) धनुर्धारी, धनुर्विद्या निपुण (जयो० ६/१०८) कोमलाङ्गी (वि.) कोमल अंगों वाली, (वीरा० ३/१९) कोद्रवः (पुं०) [कु+विच्-को, द्रु+अक्नद्रव] कोदों, एक | सुकुमारता युक्त। 'का कोमलाङ्गी वलये धराया' (जयो० धान्य विशेष।
५/८६) को न (अव्य०) कौन नहीं। (सुद० ८५)
कोयष्टिः (स्त्री०) [कं जलं यष्टिरिवास्य] टिटहरी, कुररी पक्षी। कोपः (कुप्+घञ्) क्रोध, कोप, गुस्सा, रोष। (समु० ९/२६) | कोरकः (पुं०) मोर, कुररी पक्षी। कोप-कारक ( वि०) क्रोध करने वाला। 'कोपमाशु पराभूय कोरकः (पुं०) मोर, मञ्जरी, कली। अर्ध विकसित पुष्प। मनसा के रकः' (समु० ९/२६)
'पिकोव रसालकोरकं' (दयो०५३)
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