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कैरवपुष्पं
कोटरी
कैरवपुष्पं (नपुं०) कुमुदिनी पुष्प।
कोकजनः (पुं०) चातक पक्षी। परिपालितताम्रचूडवाग् रविणा कैरवराशिः (स्त्री०) कुमुद समूह। (जयो० १५/४६)
कोकजनः प्रगे स वा। (सुद० ३/४) कैरव-संगत (वि०) कैरव पर गुनगुनाने वाले। 'कैरव- | कोकदेवः (पुं०) १. सूर्य, २. कबूतर, कापोत।
संगतषट्पद-स्वनमिषेणेति' (जयो० वृ० १५/४६) कोकनंद (नपुं०) लाल कमल, अरविन्द। [कोकान् चक्रवाकान् कैरव-वक्त्रबिम्बं (नपुं०) कुमुद रूप मुख मण्डल। कैरवमेव नदति नादयति नद+अच्] 'कोकनदस्यारविन्दर शोभा वक्त्रबिम्बं मुखमण्डलम्। (जयो० वृ० १५/४८)
लोहितमानं दधत्' (जयो० वृ० १६/४१) कैरवहार-मुद्रा (स्त्री०) श्वेत कमल के हार की आकृति
कोकपक्षी (स्त्री०) कोक/चक्रवापक्षी। वाली। (सुद० ३/४०) धवल क्रान्ति वाली। 'सोम सा
कोकयुगं (नपुं०) चकवा-चकवी का युगल, चक्रवाक मिथुन। कैरवहारमुद्रा' (सुद० ३/४०)
__'कोकयोर्युगं मिथुनं' (जयो० वृ० १५/५१) कैरवहर्षसेतुः (पुं०) कैरव के हर्ष का स्थान। 'कैरवाणां
कोकरुतः (पुं०) चक्रवाक बिलपन, चकवा का विलाप। नक्तंकमलानां हर्षस्य प्रसन्न भावस्य सेतुः' (जयो० वृ०
'कोकस्य चक्रवाकस्य रुतेन' विलपनशब्देन कृता' (जयो०
वृ० ९/१०) कैरविन् (पुं०) [कैरव इनि] चन्द्र, शशि।
कोकलोकः (पुं०) चकवा-चकवी का वियोग (जयो० २/७१) कैरविणी (स्त्री०) [कैरविवन्+ङीप्] कुमुदलता, कुमुदिनी।
कोकवत् (वि०) चकवा की तरह। (सुद० १/१०) __'चंद्र विनेव भुवि कैरविणी तथेत:' (सुद०८६)
'विरज्यतेऽतोऽपि किलैकलोक: स कोकवत्किन्त्वितरस्त्व कैरविणीवनं (नपुं०) कुमुदिनी समूह। 'श्रीमान् शशी
शोकः। (सुद० १/१०)
कोकवयसि (पुं०) चकवापक्षी। 'कोकवयसि अभियुज्यते दूषणं कैरविणीवनेषु' (जयो० १५/७३)
जायते। (जयो० वृ० ९/३८) कैरवी (स्त्री०) [कैरवी ङीष्] चांदनी, ज्योत्स्ना।
कोकिल: (पुं०) कोयल। कैलाशः (पुं०) हिमालय पर्वत, हिमगिरि।
कोकिलपित्सता (वि०) कोयल की कूक से युक्त। अभिसरन्ति कैलासः (पुं०) [के जले लासो दीप्तिरस्य केलास+अण]
तरां कुसुमक्षणे समु चिताः सहकारगणाश्च वै। रुचिरतामिति हिमालय पर्वत। (जयो० ६/३३) २. पुरुपर्वत (जयो० वृ०
___ कोकिलपित्सतां सरसभावभृतां मधुरारवैः।। (वीरो० ६/३५) २४/१८)
कोकूयनं (नपुं०) चक्रवाक का विलाप। (वीरो० १२/१९) कैलाशपर्वतः (पुं०) पुरुगिरि। (जयो० वृ० २४/१८)
कोकोक्तिः (स्त्री०) चक्रवाक की कहावत। 'कोकस्य कैवर्तः (पुं०) [के जले वर्तते-वृत्+अच्] मछवा।
चक्रवाकस्योक्तिः ' (जयो० १४/११८) कैवल्य (नपुं०) [केवल+ष्यब] 'केवलस्य कर्म विकलस्य
कोकोपश्लोकित (वि०) कोक द्वारा प्रशंसित। (दयो० ११०) आत्मनो भावः कैवल्यम्' (सिद्धि०वि०टी० वृ०४९१)
कोङ्कः (पुं०) एक देश का नाम। केवलज्ञान को प्राप्त हुआ। २. मुक्ति, मोक्ष।
कोकणः (पुं०) देखो ऊपर। कैवल्यशार्मन् (वि०) केवलज्ञान गत। (वीरो० २१/२४)
कोकणा (स्त्री०) [कोङ्कण+टाप्] नाम विशेष, जामदग्नि की कैशिक (वि०) [केश+ठक] बालों की तरह सुन्दर।
भार्या। कैशिकः (पुं०)शृंगार रस, विलासिता।
कोजागरः (पुं०) [को जागर्ति इति लक्ष्म्या उक्तिरत्र काले] कैशोरं (नपुं०) [किशोर+अज्] किशोरावस्था, बाल्यकाल। उत्सव विशेष। आश्विन मास की पूर्णिमा का उत्सव। कौमारकाल।
कोटः (पुं०) [कुट्+घञ्] किला, दुर्ग १. छप्पर, वाड, २. कैश्यं (नपुं०) [केश+ष्यञ्] बाल समूह, कचपाश, जूड़ा। कुटिलता। कोकः (पु०) [कुक् आदाने अच्] १. भेड़िया, २. हंस विशेष। कोटपालः (पुं०) कोतबाल। (दयो० १८)
३. चकवा पक्षी। (सुद० १/१०) ४. कोयल, ५. मेंढक। कोटरः (पुं०) वृक्ष की खोखर। (दयो० २२) [कोर्ट कौटिल्यं कोककुटुम्बिनी (स्त्री०) चकवी। दूरं रजस्वलेवेशादपि राति राक] कोककुटुम्बिनी' (दयो०२/६)
कोटरी (स्त्री०) कुटिया।
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