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घृणासहित
३७३
घोरब्रह्मचारित्व
२७/४)
घृणासहित (वि०) घृणा युक्त। (जयो० वृ० १५/२६) घृताम्रव (पुं०) घृत का निकलना। घृणास्पदं (नपुं०) घृणा का स्थान। पित्रोश्च मूत्रेन्द्रियपूतिमूलं घृष् (सक०) रगड़ना, घिसना, पीसना, चूरा करना, कुचलना
घृणास्पद केवलमस्य तृलम्। (सुद० १०२) सौन्दर्यमङ्गे चमकना।
किमुपैसिभद्रे घृणास्पदं तावदिदं महद्रे। (सुद० १२०) घृष्टिः (स्त्री०) [घृष्- क्तिच] पीसना, चूरा करना, प्रतिद्वन्द्विता। घृणिः (स्त्री०) [घृ+नि] गर्मी, प्रकाश, धूप।
घृष्टि-कुट्टनं (नपुं०) पीसना-कूटना, कुचलना, मसलना। घृणित (वि०) निन्दनीय, अपमान जन्य। (जयो० २५/५) 'गतस्य सर्पस्य घृष्टिकुट्टनवद्युक्तं न भवति। (जयो वृ०
'कदापि कुर्याद् घृणितं न कर्म' (सम्य० ९६) वृणित-विचारवान् (वि०) मलिन स्वभाव वाला। (जयो० वृ० २५/२६) घृष्टिचिन्तनं (नपुं०) प्रतियोगिता का चिन्तन। शोघ्र चिन्तन। घृणिताचरणं (नपुं०) निन्दिताचरण, अभिनिन्दिताचरण। घृणा (जयो० २५/८०)
करने वाले। वाचा वा श्रुतवचने निरतया भूया असूयाघृणी। | घोट: (पुं०) [घुट्+अच्] घोड़ा, अश्व। (मुनि०८)
घोटकः (पुं०) अश्व, हय, घोड़ा। (जयो० वृ० १/१९) घृणोत्पादक (वि०) घृणा को उत्पन्न करने वाला, ग्लानि को 'वाजि-वाजिप्रमुखा घोटकप्रभृत्यो' (जयो० वृ० १/३८) उत्पन्न करने वाला। (जयो० वृ० २५/२६)
घोटकगतिः (स्त्री०) घोड़े के गति, (जयो० वृ० ३/११४) घृणोद्धरण (वि०) घृणाजन्य। (जयो० २।८२)
घोटकदोषः (पुं०) कायोत्सर्ग का दोष। घृतं (नपुं०) [घृ+क्त] ०घी, तप्त मक्खन। ०आज्य। घोटकपक्षं (नपुं०) घोटक स्थान।
(जयो० १२/११७) सर्पि (जयो० ११४८६) (सम्यक घोटकमुखं (नपुं०) घोड़े का मुख। चतुर्दशगुणस्थानमुखेन १५) नार्दिताय तु सर्चिप घृतं सुप्लु हीह सुविचारतः घोटकमुखे चतुर्दशप्रकारा गुणा वल्गना भवन्ति' (जयो० कृतम्। (जयो० २/१०३) वह्निघृतं द्रावयतीत्यनेन घृतं पुनः वृ०३/१६४) 'चतुर्दशगुणस्थानानि मुखं द्वारं यस्येति ध्यान संद्रवतीतिश्रयेन:। (सम्य०७)
पक्षे' (जयो० वृ०८/११४) घृतकृत (वि०) सर्पिविधानार्थ, घृत बनाने के लिए। (जयो०। घोणसः (पुं०) रेंगने वाला जन्तु।
२/१४) तक्रता हि नवनीतमाप्यतेऽतः पनघृतकृते विधाप्यते। घोणा (स्त्री०) नाक, नथूआ। घृतवत् व्यञ्जनम् (नपुं०) राज्यपरिपूर्ण व्यञ्जन (जयो० घोणिन् (पुं०) [घोणा इनि] सूकर। १२/१२३) घेवर, राजभोग।
घोण्टा (स्त्री०) [धुण+र+टाप्] बदरीवृक्ष, उन्नाव वृक्षा घृतधारा (स्त्री०) घी की धार।
घोण्टाफलं (नपुं०) बदरीफल। घृतपाचित (वि०) घृत में पकाया गया। (जयो० १०) घोर (वि०) [घुर्+अच्] भीषण, भयानक, भयंकर, अत्यधिक, घृतपूरः (पु०) घेवर, घी से बना पकवान।
घना, बहुत। घृतलेखः (पुं०) घृत की रेखा। (जयो० २०/५९)
घोरडू (नपुं०) मूंग, जो सीझते नहीं, कङ्कोडुक। (वीरो० घृतवरः (पुं०) वृतपूर, घेवर, घी से निर्मित श्रेष्ठ पकवान्।
१७/३३) घृतवरभूपः (पुं०) घेवर, घी से निर्मित मिष्ठान्न। 'घृतेन | घोरगुणं (नपुं०) शक्तिजन्य गुण।
कान्त्या वा वरौ श्रेष्ठौ भूस्थानं पातो रक्षत इति घोरतपः (नपुं०) प्रबलतप, कठोर तपस्या। कायक्लेशादि तप। घृतवरभूपौ-व्यञ्जनविशेषौ त्रिवलिर्जलेविका। कपौलौ घोरतमः (पुं०) गहन अन्धकार। रात्रि: स्वतो घोरतमो विधात्री। घृतवरभूपौ' (जयो० वृ० ३/६०)
(भक्ति० २५) घृतवरी (स्त्री०) नाम विशेष, माता का नाम। (सुद०१/४६) घोरदर्शनं (नपुं०) भयंकर दृष्टि।। घृतसिता (स्त्री०) घी-शर्करा। 'घृतं च सिता घृतसिते' (जयो घोरदृष्टिः (स्त्री०) भयानक अक्षिा डरावनी आंखें। वृ०२२/९१)
घोपराक्रमः (पुं०) कठिन श्रम, अधिक परिश्रम। घृतस्रावी (स्त्री०) एक ऋद्धि विशेष। (जयो० १९/८०) घोरपराक्रमी (वि०) सहनशील। घृताची (स्त्री०) [घृत अञ्जु क्विप्ङीष्] १. रात, २. सरस्वती। | घोरब्रह्मचारित्व (वि०) चारित्र की उत्कृष्टता वाला ब्रह्मचर्य।
एक अप्सरा। घृताची मेनका रम्भा उर्वशी च तिलोत्तमा। एक ऋद्धि विशेष।
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