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कविजनः
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कश्य
कविजन: (पुं०) कविलोग। (जयो० वृ० ११/४१)
कविसाक्षिन् (पुं०) यजनाचार्य की साक्षी, गृहस्थाचार्य की कविज्येष्ठः (पुं०) आद्यकवि, वाल्मीकी।
साक्षी। (जयो० १२/६९) कविता (स्त्री०) [कवि+तल्+टाप्] काव्य, रचना, भावपूर्ण | कवीन्द्रः (पुं०) महाकवि, कविराज।
श्रेयात्मक रचना। (सुद०१७, २/६, वीरो१/२७) 'सुवर्णमूर्तिः कवीन्द्रगीति (स्त्री०) कविराजों की प्रणीति, कवियों का कवितेयमार्या' (वीरो० १/२७) 'अलङ्कारपूर्णा कवितेन कथन, कवि प्रगीत। (जयो० १२/७०) सिद्धा' (सुद० २/६)
कवीश्वरः (पुं०) महाकवि, कविराज। कवितानुसारिणी (वि०) कविता का अनुसरण करने वाली। कवीश्वरलोकाग्रहः (पु०) कवियों का समूह, काव्य रचनाकार
'कवितामनुसरतीति कवितानुसारिणी कविता च सम्यग्रूपाणां का समुदाय। कवीन्द्राणां लोकस्य वृन्दस्याऽऽग्रहतो (जयो० सुप्तिङ्तानां पदानां शब्दानां सङ्ग्राहिणी' (जयो० वृ० १०/११९) ३/११) मञ्जुवृत्त-विभवाधिकारिणी कामिनीष कवितानुसारिणी कवोष्ण (वि०) कुनकुना, गुनगुना, थोड़ा उष्ण। कुत्सितं ईषत् (जयो० ३/११) कविता च मञ्जुनां निर्दोषाणां वृत्तानां
उष्णम्। छन्दसां विभवस्य आनन्दस्य अधिकारिणी भवत्येव' (जयो० कव्यं (नपुं०) आहूति। वृ०३/११)
कश् (अक०) बांधना, कसना, दृढ़ करना। 'विकसन्ति कशन्ति कविताभर (वि०) काव्य रस से परिपूर्ण। (सुद०१/२)
मध्यकं' (जयो० १३/६) २. अंगीकार करना। (वीरो० कविताश्रयः (पुं०) १. काव्य का आधार, २. जलपक्षी का ४/२४) (वीरो० ४/२४) कशित्वा आधार।
कश्चन (अव्य०) किसी, कोई। 'अथ कश्चन नाथनामवंशकविताश्रयपदः (नपुं०) कविताश्रयपद, काव्य के आश्रयभूत समयस्य' (जयो० १२/११०)
पद। 'कस्य-पक्षी तस्य भावो कविता तस्याश्रयपदो कविताया कश्चनापि (अव्य०) कोई भी। 'स्त्रीणां कश्चनापि न विद्यते' आश्रयो दोहा नामच्छन्दसो' (जयो० वृ० २२/९०)
(जयो० २/१४७) कवित्व (वि०) आत्मवेदित्व, आत्मज्ञता। पीलो! कवित्वं कश्चित् (अव्य०) कोई, किसी का। 'कश्चिदपरिचितः पुरुष'
खलु लोकवित्वं' २. काव्य रूपता। (जयो० १९/४४) (जयो० वृ० ३/२१) 'बालोऽस्तु कश्चित्स्थविरोऽथवा' कवित्वगावा (वि०) कवित्व शक्ति। 'वाग्यस्यास्ति नः शास्ति (सुद० १२१) कवित्वगावा' (सुद० १/१)
कश्चिदित्येवम् (अव्य०) इस प्रकार किसी का भी। 'कस्यापि कवित्ववृत्तिः (स्त्री०) काव्य दृष्टि, कविता का अभिप्राया- प्रार्थनां कश्चिदित्येमवहेलयेत्' (सुद० १३४) 'कवित्ववृत्येत्युदितो न जातु' (वीरो० ६/११)
कश: (पुं०) [कश्+अच्] चाबुक, कोड़ा। (समु० ७/५) कवित्वशक्तिः (स्त्री०) काव्यशक्ति, कविता करने का बल। विमर्दना (जयो० २७/१३)
तेषां गुरूणां सदनुग्रहोऽपि कवित्वशक्तौ मम विघ्नलोपी' | कशिताण्यः (पुं०) कशीदा। (जयो० २/५०) (वीरो०१/६)
कशिपु (पुं०/नपुं०) तकिया, चटाई, वस्त्र। कवित्वशक्ति-मंत्रं (नपुं०) काव्य प्रतिभा का मन्त्र। 'औं ह्यीं कशिम्बः (पुं०) १. गुच्छक, छत्र। (जयो० ८/१४, १५/६२)
अहँ णमो सयंबुद्धीणं।' (जयो० १९/६४) इत्यादिना मन्त्रेण कशेरु (पुं०/नपुं०) १. रीढ़ की हड्डी, २. घास विशेष। कवित्वादि शक्तिर्भवतीति'
कश्मल (वि०) [कश्+अल, मुट] पाप (जयो० २१/९) कवित्वोचितः (पुं०) कविता करने योग्य। समन्त-भद्रादि स्मास्पृशन्त इति यान्ति कश्मलाभीतिमन्त इव तावदुत्कला:
महानुभावा, युक्ता: कवित्वोचितसम्पदा वा। (समु० १/११) (जयो० २१/९) कश्मलात्पापा भीतिमन्न। अकीर्तिकर, कविभवः (पुं०) १. कवि द्वारा उत्पन्न। २. पक्षियों के अयशयुक्त, निन्दित, घृणित। मनमोहक शब्द। (जयो० वृ० ३/११५)
कश्मलं (नपुं०) पाप, मन का खेद, दु:ख, उदासी, मूर्छा। कविराजः (पुं०) १. महाकवि, २. वैद्य, भिषग।
कश्मीरः (पुं०) कश्मीर देश। कविवृत्तकः (पुं०) कविगुणगान, काव्यछन्द, कविता के वृत्त। कश्मीरज: (पुं०) केशर, जाफरान्।
कवेर्यशोगायकस्य वृत्तरेव वृत्तकैश्छन्दोभिः' (जयो० वृ० १०॥२) | कश्य (वि०) [कशामर्हाति-कशा+य] चाबुक लगाने योग्य।
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