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कल्लोलितावर्त
२७१
कविकृष्णा
कल्लोलितावर्त (नपुं०) लहर का गोलाकार। 'व्यक्तोऽतो | कवलित (वि०) ग्रासीकृत, खाया गया, चबाया गया, ग्रहीत,
वलिबद्धनाभिकुहर: कल्लोलितावर्तवत्' (जयो० २४/१३५) पकड़ा। 'कवलितं च शकृत्करिणा ततः' (जयो० २५/६८) कल्लोलिनी (वि०) [कल्लोल+इनि डीप] सरिता, नदी। कवलीकृत (वि०) नष्ट करने वाला, नाशक, विध्वंसक, कव् (अक०) स्तुति करना, प्रार्थना करना, वर्णन करना, छेदक, ग्रसित। (जयो० वृ० २२/२५) रचना, चित्रण करना।
कवलोपयुक्ति (स्त्री०) १. आत्मबल युक्ति, २. मौक्तिक कवकः (पु०) [कव्+अच्+कन्] मुट्ठीभर।
युक्ति। 'कवलस्य आत्मबलस्य मौक्तिकस्य चोपयुक्तो' कवचः (पुं) १. रक्षा कवच, वर्म, सन्नाह। (जयो० वृ० ३/१००) (जयो० वृ० ५/१०२) कवचं (नपुं०) उरश्छद, वक्षस्थावरणक, सन्हक, 'दु:खनिवारण- कवलोपसंहारकः (पुं०) शमनशक्तिनाशक, यमराज की शक्ति
सामान्यात् कवचशब्देनोच्यते' (भ०आन्टी०) कञ्चकमावरण। का नाश। २. ग्रासभक्षक। (जयो० वृ० ७/२१) 'गाढमुष्टिरयं (जयो० वृ० ७/९३) २. हरीतकी वृक्ष, हर्ड। कवचो खङ्गः कवलोपसंहारकः। (जयो० ७/२१) वारबाणे स्यात्पटहे, गर्दभाण्डके इति वि (जयो० व० । कवाटः (पुं०) [कलं शब्दं अरति कु+अप अट्+अच्] कपाट, २१/२९)
द्वार के दो भाग। दृढं कवाट दलितानुशायिन्। (वीरो० ५/२४) कवचधारणं (नपुं०) कवचस्थान। (जयो० वृ०३/१००) कवि (वि०) [कु+इ] १. सर्वज्ञ, ज्ञानी, २. निपुण, चतुर, कवचपत्रं (नपुं०) भोजपत्र, पाकर तरु। पाकरवृक्ष।
बुद्धिमान, विचारशील। ३. प्रशंसनीय, गुणी। कवचप्रसाधनं (नपुं०) बख्तर, वर्मयुक्त। कवचानां हरीतकी- कविः (पुं०) काव्यपाठक, काव्यरचनाकार। कविनेदमुत्प्रेक्षितम्।
वृक्षाणां वर्मणां प्रसाधने स' (जयो० वृ० २१/२९) गौरि। (जयो० वृ० १/१९) काव्यकार-'कवेर्भवेदेव तमोधुनाना' सज्ज-कवचप्रसाधनः प्रौढशूर इव राजतेऽप्ययम्' (जयो० (सुद० १/१०) २. शुक्र-देवसभायां कश्चनैव कविः शुक्रः। २१/२९)
(जयो० वृ०५/३२) कवयः काव्यकर्तारः शुक्रश्च' (जयो० कवचसर (वि०) कवचधारी, वर्म युक्त।
५/९१)२. यजनाचार्य- हविषा कविाक्षिणा' कवचस्थानं (नपुं०) कवचधारण। (जयो० वृ० ३/१००)
कविर्यजनाचार्यः गृहस्थाचार्य (जयो० १२/६८) ३. ऋषि, कवचमुद्रा (स्त्री०) आसन की विधि, मुष्ठी बांधकर कनिष्ठा विचारक। राजकुमार (जयो० १/८) ४. सूर्य, ५. ब्रह्मा। और अंगुष्ठ को फैलाना।
कवि-कल्पः (पु०) काव्य कर्ता का मनोभाव, काव्यकार की कवचित (वि०) वर्मित, कवच युक्त, बख्तरसहित। (जयो० मनोगत स्थिति। वृ० २१/४)
क-विकल्पः (पुं०) पनडुब्बी, जलपक्षी। 'कस्य वयः कवयो कवर (वि०) खचित, जटित, मिश्रित, जड़ा हुआ, विचित्र, | जलपक्षिणस्तेषां कल्पस्समूहस्तेन' (जयो० वृ० १९/९) नाना प्रकार का! (वीरो० ९/१४)
कविका (स्त्री०) लगाम, खलीन। कविकामविकार-गामिनां कवरः (पुं०) १. नमक, २. अम्लता।
लपने सम्प्रति वाजिनामपि' (जयो० १३/५) कवरस्थली (स्त्री०) खचित। (वीरो० ९/१४)
कविकाचर्वणं (नपुं०) लगाम चबाना। तुरगो विरराम नामवान् कवरी (स्त्री०) [कवर डीप] चोटी, जूड़ा (जयो० वृ० २२/२५) कविकाचर्वणचारुहेषया' (जयो० १३/७२) कविकाया: कवीरकृत (वि०) १. वेणीरूपता युक्त।
खलीनस्य चर्वणेन चा:। (जयो० वृ० १३/७२) कवरीकृतान्धकारः (पुं०) ग्रासीभूत अन्धकार, आच्छादित कविकुलं (नपुं०) १. पक्षि समूह, जल पक्षिवृन्द। (जयो० अन्धकार। (जयो० वृ० २२/२५)
वृ०२०/७) २. काव्यकर्ता समु दय, कविलोग (जयो० कवरीभरः (पुं०) गुथी हुई चोटी, जूड़ा।
६/४२) कवल: (पुं०) मुट्ठीभर, कौर, हजार शालिधान्य प्रमाण। केन कविकृतवाक् (नपुं०) कविचारण वाणी, कवियों द्वारा रचित
जलेन वलते चलति-वल अच् नाऽधुनाह कवले नियुक्तः' वचन। आधुनिकेन काव्यकृता यासौ वाणी' (जयो० (वीरो० १२/४८)
१८/९०) कवलय् (सक०) भक्षण करना, भोजन करना। कवलयिष्यति। कविकृष्णा (स्त्री०) द्राक्षा, दाख। तृष्णा तु द्रौपदी नीली (दयो०५०)
हारइरा सुपिप्पलौ' इति वि० (जयो० वृ० २५/१२)
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