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अनर्थकर
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अनवस्था-दोषः
अनर्थकर (वि०) ०अनिष्टकर, हानिकर, अलाभदाई, निरर्थक, दलमनल्प: यशो जल्पन्ती। (जयो० २/१५५) देवमन्नसारहीन।
वसनाद्यनल्पशः। (जयो० २/९९) अनल्पशो बहुवारम्। अनर्थकरी (वि०) अनिष्टकारी, हानिकारक, अलाभदायक। (जयो० वृ० २/९९) अनर्थता (वि०) व्यर्थमेव, हानिकारिता। (जयो० ४/२७) । अनल्पित (वि०) अधिकतम्, अत्यधिक, अति। (जयो० ७/६६) अनर्थदण्डः (पुं०) अनर्थदण्डव्रत, दिग्व्रत का एक भेद। अनल्पितक्रध (वि०) अतिक्रोधित, अत्यन्ताद्ध।
प्रयोजनं बिना पापादानहेत्वनर्थदण्डः। (चा०सा०१६/४) अनल्पितक्रुधोऽतिकोपवतः। (जयो० ७/६६) पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दु:श्रुति और प्रमादचर्या अनवकाश (वि०) अप्रयोज्य, अनाहूत। ये पांच अनर्थदण्ड हैं। (तत्त्व ७/२१)
अनवकाशः (पुं०) कार्य क्षेत्र का अभाव, स्थानाभाव। अनर्थनीतिः (स्त्री०) विप्लवकरी चेष्टा। आयाति भो भरत- अनवग्रह (वि०) अतितीव्रगामी।
भूभृदनर्थनीतिः। (जयो० २०/३०) अनर्थस्य नीतिविप्ल- अनवच्छिन्न (वि०) ०अनिद्रिष्ट, ०अविकृत, ०अबाधित, वकरी चेष्टा प्रतीतिमायाति। (जयो० वृ० २०/३०)
०अपृथक्कृत, ०सीमांकन रहित, सीमा रहित। अनर्थ-सूदनं (नपुं०) अनिष्टनाशन। देवपूजनमनर्थसूदन। (जयो० अनवधानं (नपुं०) असावधानी। असत्यवक्ताऽनवधानतोऽपि।
२/२३) अनर्थं सूदयतीत्यनर्थ सूदनम् अनिष्टनाशनम्। (जयो० (समु० ३/२२) वृ० २/२३)
अनवधानता (वि०) बिना प्रयोजन, कारण बिना। (समु०३/२२) अनर्ह (वि०) अयोग्य, अपूज्य, अनुपयुक्त।
अनवधि (वि०) असीमित, अपरिमित। अनलः (पुं०) [नास्ति अलः पर्याप्तिर्यस्य] अग्नि, बह्नि, आग। अनवद्य (वि०) निर्दोष, अनिंद्य, समीचीन, उत्कृष्ट, निष्कलंक। (जयो० २।८१) १/७६)।
ततोऽनवद्यप्रतिपत्तिवन्मतिः (जयो० ३/६६) नावद्याऽनवद्या अनलः (पुं०) पाचनक्रियाशक्ति, पित्त।
निर्दोषा। (जयो० वृ० ३/६६) ततोऽनवद्ये समये। (सुद० अनलद (वि०) [अनलं द्यति] गर्मी को नष्ट करने वाला। ३/४८) अनलदीपन (वि०) जठराग्नि बढ़ाने वाला, पाचनशक्ति कारक। अनवद्यपथः (पुं०) पापरहित मार्ग, निर्दोषपथ। (जयो० २७/५६) अनलार्चिः (स्त्री०) वह्निज्वाला। (जयो० १२/५६)
अनवद्यप्रतिपतिपत्तिः (स्त्री०) योग्य कर्त्तव्य। नवद्याऽनवद्या अनल्प (वि०) अनून, बहुमूल्य (जयो० २७/४९) विपुल निर्दोषा चासौ प्रतिपत्तिरिति कर्त्तव्यज्ञानम्। (जयो० ३/६६)
(जयो० २/१४९) गहरा (वीरो० २/१९) विशाल (सुद० अनवद्यमतिः (स्त्री०) निर्दोष बुद्धि। (जयो० ७/३२) १०८) बहुत (दयो० १९) अनल्पतूल-तल्पस्थं। (जयो० अनवयनं (वि०) अजानयत्, नहीं जानता, ०अनभिज्ञ, (जयो० २/१४९)
२५/७७) अनल्पजलं (नपुं०) गहरा जल, तटाक, नाल्पमनल्पं जलं येषु । अनवरत (वि०) अविराम, निरन्तर। तेऽनल्पजल-तटाका:। (वीरो० २/१९)
अनवलंब (वि०) निराश्रित, आलंबन हीन। अनल्पतल्यः (पुं०) बहुमूल्य पल्यङ्क (जयो० २७/४७) अनवलोभन (वि०) लोभ रहित। अनल्पतर (वि०) बहुमूल्यतर। (दयो० १०४)
अनवसर (वि०) निरवकाश, व्यस्त। अनल्पतूलं (नपुं०) अतिकोमल। (सुद० २/११) अनल्पतूलोदित- अनवशेष (वि०) जूठन रहित, सम्पूर्ण। (जयो० २/१०८)
तल्पतीरे। (सुद० २/११) अतिकोमल रूई दार गद्दा से अनवस्थ (वि०) अस्थिर, अंचल। संयुक्त।
अनवस्था-दोषः (पुं०) अनवस्था दोष। तस्याप्य वित्तेराकृत्या, अनल्पतूल-तल्पस्थ (वि०) विपुल रूई के गद्दे वाले शयन। यदि सामान्यरूपतः। उपायान्तरतो वित्तिरनवस्थेति वर्तते।।
(जयो० २/१४९) स्त्रियोऽनल्पं तूलं यस्मिन् तादृशं यत्तल्पं हित सं० वृ० १४/२ यदि कहा जावे कि उसकी भी शयनं तत्र। (जयो० वृ० २/१४९)
अभिव्यक्ति जाति विशेष में ही होती है तो उसका ज्ञान अनल्परूप (वि०) अलौकिक रूप। (जयो० वृ० ६/६३) किसी आकार विशेष से होता नहीं, अत: उसके लिए भी अनल्पश (अव्य०) ०बारं बार, ०भूयो भूयो, ०पुनः पुनः, और उपायान्तर मानना पड़ेगा। ऐसे आगे से आगे चलते
समय समय पर। (जयो० २/१५५) स्मितरूचिताधर- चलो तो अनवस्था हो जाती है।
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