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आशीविषः
आश्रममान्
है। 'आविद्यमानस्यार्थस्य आशंसमाशी:, आशीविषं येषां ते आशेकुटिन् (पुं०) [आशेतेऽस्मिन् इति-आ+शी-विच् स इव आशीर्विषः।' (धव० ८५)
___ कुटति इति णिनि ] पर्वत, गिरि, पहाड़। आशीविषः (पुं०) दाढका विष. सर्प। 'आश्यो दंष्ट्रास्तासु विषं आशौचः (पुं०) सूतक नामा शुद्धि। (जयो० २८/३६)
येषां ते आशीविषा:' वृश्चिकादयः। 'अहोममासिः प्रतिपक्ष- आशौच-परायण (वि०) १. सूतक नामक अशुद्धि से युक्त।
नाशी किलाहिराशीविष आ: किमासीत्।' (सुद० १०८) २. शौचकर्मयुस्संतोषशीलस्सन्।' (जयो० वृ० २८/३६) आशु (वि०) [अश+उण्] शीघ्रता युक्त, वेगशील, त्वरित गतिवान्। आश्चर्य (वि०) [आ+ चर् + ण्यत् सुट्] अद्भुत, असाधारण, आशु (नपुं०) १. शीघ्र, जल्दी, सत्वर 'आशीहौ क्लीबं त विश्मय, चमत्कारजन्य, विलक्षण। (दयो० ६६)
सत्वर' इति विश्वलोचनः।' (जयो० ९१८/१७) २. | आश्चर्य (नपुं०) अद्भुत, असाधारण, चमत्कार, कौतुक. अनायास-अथ धराभवमाशुरसातल' (जयो०१/९७) 'आशु कौतूहल। अनायासेन' (जयो० वृ० १/७७)
आश्चर्यकर (वि०) [आश्चर्यं करोत्याश्चर्यकर:] आशु-पूर्णतया (वीरो० २/३४) आशु-शीघ्रमेव-(जयो० वृ० विस्मयोत्पादक , चमत्कार जन्य। ( ज या ० ४.६५)
८/७३) समुत्स्फुरद्विक्र- मयोरखण्डवृत्त्या तदाश्चर्यकर: आशुकारी (वि०) नाना प्रकार के धान्य। (वीरो० ४/१३) प्रचण्डः ।' (जयो० ८/७३) आशुकृत् (वि०) शीघ्रता करने वाली वेगशील, शीघ्रगामी, चुस्त। | आश्चर्य-चकित (वि०) विस्मित, चमत्कारित। (जयो० वृ० आशुग (वि०) वेगशाली, तीव्रताजन्य।
१५/५) 'दृष्ट्वा च साश्चर्य चकितमानसस्तत्र' (दयो० आशुगः (पुं०) १. बाण 'आशुगो बाण स्तेन। कुसुमस्य आशुगो
बाणो यस्य। (जयो वृ० ६/६६) २. पवन, वायु, 'आशुगेन, | आश्चर्यसमन्वित (वि०) विश्मय युक्त, कौतुक से परिपूर्ण, वायुना। ( वीरो० ४/१९) संतरति। (जयो० ० ६/६६) ३. अचम्भे से युक्त। 'सहसाश्चर्यसमन्वितोऽभवत्।' (समु० सूर्य, दिनकर।
२/१९) आशुचित्व (वि०) शीघ्रवेदित्व, शीघ्रविचारक। (जयो० १९/४४) आश्चर्यस्थलं (नपुं०) अभिनय स्थान, आश्चर्य स्थान 'अभिनयं "स्विदाशुचित्वं च सदा शुचित्वम्।' (जयो० १९/४४)
आश्चर्यस्थानम्' (जयो० वृ० ४/५) आ-शुचित्व (वि०) शुचिता सहित, पवित्रता जन्य। (जयो० आश्चर्यस्थानं (नपुं०) आश्चर्य स्थल, चमत्कार जन्य स्थान। वृ० १५/४४)
(दयो० ८) 'न किञ्चिदपि किलाश्चर्यस्थानम्।' आशुतोष (वि०) शीघ्र संतुष्ट होने वाला. प्रसन्नताभाव जन्य। आश्चर्यान्वित (वि०) आश्चर्य समन्वित, विस्मययुक्त, आशुतोष: (पुं०) शिव, कल्याण।
आश्चर्यचकित। (जयो० वृ० २२/७) आशुभावः (पुं०) १. शुभपरिणाम, २. शीघ्रपरिणाम। "रूपस्य आश्यान (भू० क० कृ०) [आ+श्यै क्त ] संलग्न, जमा हुआ।
पश्य कथमद्य किलाशु भाव:।' 'आशु भाव : आश्रपणं (नपुं०) [आ+ श्रा+णिच्+ ल्युट] पकाना, उबालना। शीघ्रपरिणामोऽथवा व्रीहिभावः' (जयो० वृ० १८/१७) आश्रम् (नपुं०) अश्रु, आंसु। 'आशु/हिक्लीवे तु सत्वरे' इति विश्वलोचनः।' (जयो० आश्रमः (पुं०) आवासकक्ष, निवास स्थान, विद्या स्थान, वृ० १८/१७)
ब्रह्मणादि स्थान। (जयो० वृ० ३।८१) * उत्तम आवास। आशुमतिः (स्त्री०) शीघ्रविचारकारी बुद्धि, तीव्रबुद्धि, तीक्षबुद्धि, आश्रमगुरु (नपुं०) विद्या गुरु, प्रशिक्षिक, आश्रम का अध्यापक।
श्रेष्ठधी। (जयो० वृ० १३/८) 'स्मर आशुमतिश्चकार' आश्रमगृहं (नपुं०) विद्या स्थान। (जयो० १३.)
आश्रमधर्मः (पुं०) विशिष्ट कर्त्तव्य। आशुमुखं (नपुं०) शीघ्रता जन्य। (जयो० १७/२८)
आश्रमपदं (नपुं०) आश्रम स्थान, विद्या स्थान, पावनभूमि। आशुव्रीहिः (स्त्री०) आशुधान्य, शीघ्र पकने वाली धान्य।। आश्रमभित्तिः (स्त्री०) नृपप्रसाद कुञ्ज। (जयो० १०/१०) आशुशुक्षणिः (स्त्री०) [आ+शुष्+सन्+अनि] १. पवन, वायु, आश्रममण्डलं (नपुं०) तपोवन, तप स्थान, संयमभूमि, पावन क्षेत्र। हवा। २. अन्नि, वह्नि। 'स्वयमाशु पुनः प्रदक्षिणीकृत' आश्रममान् (वि०) आश्रमवाला, आश्रम के नियमों का पूर्ण आभ्याममधुनाशुशुक्षिणिः। (जयो.०१२/७५)
पालन करने वाला। (जयो० २/११७)
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