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कपिकेतनः
२५३
कबन्ध:
कपिकेतनः (पुं०) अर्जुन का नाम। कपिजः (पुं०) शिलाजीत। कपितैलं (नपुं०) शिलाजीत। कपिध्वजः (पुं०) अर्जुन का नाम। कपित्थः (पुं०) [कपि+स्था-क] कैंथ, कबीट, कथा, दधिफल। __ 'कपित्थं दधिफलं' (जयो० वृ० २५/११) मन्मथ:
कामचिन्तायां कामदेव-कपित्थयो:' (जयो० वृ० २१/२७)
कपित्थ को मन्मथसार भी कहा जाता है। कपित्थदोषः (०) साधु के कायोत्सर्ग में दोष। 'यः कपित्थफलमन्मुष्टिं कृत्वा, कायोत्सर्गेण तिष्ठति तस्य
कपित्थदोषः' (मूला० वृ० ७/१७) । कपिल (वि०) [कम्प्+ इलच्, पादेश:] भूरे रंग का। कपिलः (पु०) कपिल नामक मुनि। कपिल ब्राह्मन् (पुं०) कपिल नामक विप्र। (सुद० ७६) सुद
र्शन सेठ मित्र। कपिलक्षण (नपुं०) बन्दर के लक्षण, चपलता युक्त, चंचलता
सहित। (वीरो० ११४८) समाह सद्यः कपि-लक्षणेन, समाह
सद्यः कपिलः क्षणेन।' (सुद० ३/३९) कपि-लक्षणा (वि०) चंचल स्वभाव वाली, बन्दर जैसे लक्षणों वाली। कपिला (स्त्री०) कपिल विप्र की पत्नी कपिला ब्राह्मणी।
चम्पानगरी के विप्र कपिल की भार्या। कपिल विप्र सुद र्शन सेठ का मित्र था, जो रूप-सौन्दर्य में अनुपम था। उसी पर वह कपिला मुग्ध हुई, पर सुदर्शन ब्रह्म में लीन
विरक्ति की ओर बढ़ता रहा। (सुदर्शनोदय) कपिलाख्या (वि०) कपिला नाम वाली, कपिला ब्राह्मणी,
कपिलविप्र की पत्नी। सुद र्शनान्वयायाङ्का कपिलाङ्गना (स्त्री०) कपिल ब्राह्मण की स्थापिता कपिलाख्यया।
अंगना। भार्या-कपिला। कपिश (वि०) [कपि+श] सुनहरी, स्वर्ण सदृश। कपिशः (पुं०) १. शिलाजीत, २. लोभान, ३. भूरा रंग। कपिशा (स्त्री०) माधवी लता। कपिशित (वि०) [कपिश+इतच्] स्वर्ण सदृशता, सुनरहे रंग
वाला। कपुच्छलं (नपुं०) मुण्डन संस्कार। कस्य शिरस्य पुच्छं
लाति-क पुच्छ+ला+क-कस्य शिरसः पुष्ट्यै पोषणाय
कायति। क पुष्टि कै+क टाप्। कपूय (वि०) अधम, नीच, निम्न स्वभाव वाला। (कुत्सितं
पूयते कु+ पूय+अच्)
कपोतः (पुं०) कबूतर, पारावत। कपोतकः (पुं०) शिशु कबूतर। (जयो० १५/४५) कपोत-चरणं (नपुं०) सुगन्धित द्रव्य। कपोत-पाली (स्त्री०) चिड़ियाघर, जन्तु-आलय। कपोत-राजः (पुं०) कबूतरों का राजा। कपोतलेश्या (स्त्री०) मत्सर भाव युक्त लेश्या। छह लेश्याओं ___ में तृतीय लेश्या। कपोतहस्तः (पुं०) अंजली बद्धता। कपोताञ्जनं (नपुं०) सुरमा, अंजन। कपोतारिः (पुं०) बाज। कपोलः (पुं०) १. गाल, गण्डस्थल, गण्डमण्डल। 'कपौलौ
घृतवरभूपौ' २. मिथ्या, झूठ, अलीक कल्पना। (जयो० ३/६०) कपोलकः (पुं०) कपोल, गाल, गण्डस्थल। 'दृशि चैणमदः ___कपोलकेऽञ्जनकं' (जयो० १०/५९) कपोल-कलित (वि०) मिथ्याजनित, अलीकता युक्त, कल्पना
जन्य। 'कुत्सितेषु सुगतादिषु क्रमाद्धा कपोल-कलितेषु च भ्रमात्।' (जयो० २/२६) कपोलकलितेषु-मिथ्याकल्पितेषु।
(जयो० वृ० २/२६) कपोलपालिः (वि०) गण्डस्थलाग्रभाग, कपोल भाग। (जयो०
१३/७१) कपोलभित्ति (स्त्री०) कनपटी, चौड़ा फैला हुआ गण्डस्थल। कपोलमूलं (नपुं०) गण्डस्थल भाग। (दयो० ८६) कपोलरागः (पुं०) गालों की लालिमा, गण्डस्थल रागिमा। कफः (पुं०) बलगम, श्लेष्मा। कफचूर्णिका (स्त्री०) लार, थूक। कपक्षयः (पुं०) कफ रोग, श्वांस रोग फेंफड़े का रोग। कफणिः (स्त्री०) कोहनी [केन सुखेन फणति-स्फुरति-क+
फण्+इन्, क+फण्+इन] कफन (वि०) कफ नाशक। कफज्वरः (पुं०) बलगम से उत्पन्न होने वाला ज्वार/बुखार। कफल (वि०) [कफालच्] कफ प्रवाह, कफप्रवृत्ति। कफारिः (स्त्री०) सोंठ, अदरक। कफिन् (वि०) [कफ+इनि] कफ पीड़ित, कफग्रस्त। कफोणि (स्त्री०) कोहनी, केहुनाठ। कुक्षि-रोपित-कफोणितयाऽरं
प्राप्य सा दधिशरावमुदारम्' (जयो० १०/१०५) कबन्धः (पुं०) १. बिना शिर का धड़। [कं मुखं बध्नाति
क+बन्धःअण्] २. पेट, उदर। ३. मेघ। ४. धूमकेतु, ५. राहु, ६. जल, ७. कबन्ध, शिरोहीन नामक राक्षस।
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