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चम्पूप्रबन्ध
३८१
चरणसंपर्कः
'गद्य-पद्य-मिश्रितं काव्यं चम्पूरिति। यशस्तिलकचम्पू, दयोदय चरकार्यतत्परः (पुं०) चटकज्ञाता वैद्य, भिषज। (जयो० वृ० चम्पू (आचार्य ज्ञानसागर प्रणीत)
३/१६) चम्पूप्रबन्धं (नपुं०) चम्पू रचना, चम्पूकाव्य प्रबन्ध। तत्प्रोक्ते चरणचारी (वि०) पादचारी, पगविहारी।
प्रथमो दयोदयपदे चम्पूप्रबन्धे गतः। लम्बो यत्र यते: | चरणचारित्व (वि०) पादचारी। चरणाभ्यां पादाभ्यां चरतीति समागमवशाद्धिस्त्रोऽप्यहिंसा श्रितः। (दयो० वृ० १३)
पादचारी, चरणचारी। (जयो० वृ० १०/८४) १. आचरणं चय् (सक०) छोड़ना, जाना, परित्याग करना।
चारित्रमिन्द्रियनिरोधादिलक्षणं चरतीति चरणचारी। (जयो० चयः (पुं०) संघात, संग्रह, समूह, ढेर, समुच्चय। (जयो० वृ०१०/८४)
६/२४) सविभावान् इव तेजसां चयः। (जयो० १३/१२) चरटः (पुं०) [चर्+अटच्] खंजन पक्षी। * चयः समूह (जयो० वृ० १३/१२)
चरणं (नपुं०) १. पाद, पैर। * प्रवाह-'गगनापगाचयम्' गङ्गाप्रवाहम् (जयो० वृ० चरणः (पं०) २. स्तम्भ, सहारा, आश्रय। ३. छन्द का चौथाई १३/५५)
भाग। (जयो० १/५) यत्कुलीनचरणेषु च तेषु छायया चयनं (नपुं०) [चि+ ल्युट्] १. चुनना, इकट्ठा करना, ढेर परिगतेषु मतेषु (जयो०५/२१) पृथिव्यां लीनं चरण-मूलम्'
लगाना। २. देवों को अपनी सम्पत्ति से वियोग होना। चयनं (जयो० वृ० ५/२१) ४. गमन,गति, चलना (सुद० ९२) कषाय-परिणतस्य कर्मपुद्गलोपदानमात्रम्।
यतो मस्तकेन चरणं गमनं अथवा पदभ्यां समुद्धरणं चयनलब्धिः (स्त्री०) अग्रायणीय पूर्व का नाम।
भारोत्थापनं भवति। (जयो० वृ० २/११५) ५. चारित्र, चयवान् (वि०) संग्रह कर्ता, संग्रहवान्। 'शैलोचित-करिचयवान्' आचरण। (जयो० ५/२१) । (जयो० ६/२४)
चरणकुशीलः (वि०) विद्याश्रम भूत। चर् (सक०) घूमना, चलना, जाना, चक्कर काटना, भ्रमण चरणजः (पुं०) शूद्र (जयो० १८/५८)
करना, चक्कर लगाना, विचरण करना। वनाद्वनं चरणघातः (पुं०) पादार्दिन, पाद प्रहार। (जयो० वृ० १५/७२) सम्व्यचरत्सुवेशः स्वयोगभूत्या पवमान एषः। (सुद० ११८) चरणग्रन्थिः (पुं०) घुटना, टखना। अनुद्दिष्टां चरेद् भुक्तिम् (सुद० १३२) १. अनुष्ठान चरणदेशः (पुं०) पादभू। (जयो० १२/१०४) करना, अभ्यास करना, उपभोग करना। २. व्यवहार चरणनिकट (नपुं०) पाद सन्निकट। करना, आचरण करना। (जयो० २७/४०)
चरणन्यासः (पुं०) पग, कदम। चर (वि०) विचरण, गमनशील, गतिशील, चलने वाला। चरणपतनं (नपुं०) विधिवत् प्रणाम, साष्टांग प्रणाम। चरः (पुं०) दूत, अनुचर। प्रेषितश्चर इतोऽवतारणहेतवेऽर्कपादयोः चरणपतित (वि०) चरणों में नम्रीभूत। सुधारणः। (जयो० ७/५६)
चरणणंशु (स्त्री०) चरणरेणु, चरण रज। (जयो० वृ० १/१०४) * चरण-स्त्वार्याभूयतया चरानि भवतः सान्निध्यमस्मिन् चरणपानं (वि०) आचार-विचार करने वाला, संयमी। क्रमे। (सुद० ११३)
चरणपुलाकः (पुं०) मूलगुण और उत्तरगुण की प्रतिसेवना। * चर्या-चुरादूरे चरः सर्वथा (मुनि० ३)
चरणप्रान्तः (पुं०) चरणभाग, चरण समीप। (जयो० १६/६१) * त्रसजीव-जीवाः सन्ति चराः किलैवमचराः सर्वे चरणमुखः (नपुं०) दूत। (जयो० ५/६४) चिदात्मत्वतः। (मुनि० १३)
चरणदृष्टदेशः (पुं०) एड़िया। (जयो० ११/१७) * दृष्टिगोचर।
चरणप्रसादः (पुं०) चरण सेवा, सेवाभाव। पदरीति (जयो० वृ० * ग्रह विशेष।
१/३१) (दयो० १०७) चरकः (पुं०) [च+ल्युट्] दूत,।
चरणरेणु (स्त्री०) पादपांशु, चरणरज, पैरों की धूल। (जयो० * चरकसंहिता।
वृ० १/१०४) चरकसंहिताकारः (पुं०) वैद्य, चरकश्चासौ आर्यश्च तस्मिंस्तत्परा चरणवती (वि०) चरणों में रहने वाली। (जयो० वृ० ४/५४)
अनुरागिणो दूतवद् भवन्ति। चरस्य कार्ये तत्पराः परायणा चरणविनयः (पुं०) विनत भाव। भवन्ति। चश्चारे चलेऽपि चेति प्रमाणात्। (जयो० वृ० ३/१६) चरणसंपर्कः (पुं०) चरणस्पर्श, पादसमन्वय।
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