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उल्लास-शालिनी
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उष्ट्रारोहिन्
उल्लास-शालिनी (वि०) उमंग/हर्षयुक्ता। (सुद० ७८) उल्लिङ्गित (वि०) [उद्+लिंग+क्त] प्रसिद्ध, विख्यात। उल्लिख (सक०) उत्कीर्ण करना, बनाना, चित्रित करना। उल्लिखित (भ० क० क०) उत्कीरित, चित्रित। (जयो०
२३/३३) उत्कीर्ण। 'भीतोऽथ तत्रोल्लिखितान् मृगेन्द्रादि'
( वीरो० २/३४) उल्लीढ (वि०) [उद्-लिह्+क्त घर्षित, रगड़ा हुआ, मसला
गया। उल्लुञ्चनं (नपुं) [उ+लुञ्च् ल्युट्] १. लुञ्चन, लोंचना,
उखाड़ना, बाल उखाड़ना। २. काटना। उल्लुण्ठनं (नपुं०) [उद् + लुण्ठ् + ल्युट्] व्यंगात्मककथन,
व्यंग-वचन। उल्लू (पुं०) १. पक्षी विशेष। २. मूर्ख। उल्लूसत्-चमकती हुई, देदीप्यमान। (दयो० ४२) 'उडुल्लू
सत्कीकशदाम-शस्ता' (दयो० ४२) उल्लेखः (पुं०) [उद्-लिख्+घञ्] १. संकेत, वर्णन, सूक्ति
चिह्न, खनन। उल्लेखः (पुं०) उल्लेख अलंकार-जिसमें किसी वस्तु का
अनेक प्रकार से वर्णन हो। (जयो० १६/७, ८, ९) 'एकस्य अनेकधा उल्लेखाद-उल्लेखालंकार:' (जयो० वृ० ७/१०१) स्वर्णदीपयसि पङ्ककूपतश्चन्द्रमस्यपि कलङ्करूपतः। गीयते मद इतीन्द्र-सद् गजमस्तके जयबलोद्धतं रजः।।
(जयो० ७/१०१) उल्लेखकरी (वि.) उल्लेख करने वाला, चिह्नाभिधाम्। वर्णन
करने वाला। (वीरो० ३/) 'कुर्वस्तदुल्लेखकरी चकार स
तत्र लेखामिति तामुदार:' (वीरो० ३/९) उल्लेखनं (नपुं०) [उद्-लिख्+ ल्युट्] १. चित्रित करना, वर्णन
करना, चिह्नित करना, खोदना। २. रगड़ना, छीलना,
खुरचना। ३. वमन, ४. लेख, अभिलेख, प्रतिलिपि। उल्लेखनीय (सं०क०) वर्णनीय. विवेचनीय। (जयो० ७०
२४/८७) उल्लेखनीय-प्रसंग: (पुं०) वर्णन करने योग्य प्रसंग। उल्लोच: (पुं०) [उद्+लोच्+घञ्] तम्बू. ढेरा, मण्डप, वितान,
शमियाना, चंदोबा, तिरपाल। उल्लोल (वि०) [उद्-लोड्+घञ् डस्य लत्वम्] चपल, चंचल,
कंपनशील, चलायमान. स्थिरता रहित। उल्वं (नपुं०) भ्रूण, गर्भाशय।
उवगवाक्षः (पुं०) जालक, झरोखा, खिड़की। (जयो० १५/५३) उवास-त्याग करे- 'चिन्तापि चित्ते न कदाप्युवासः' (जयो०
१/२२) उवाहू- कम, (सुद० २/४५) रखना, धारण करना। उशनस् (पुं०) [वश्+कनसि] देव विशेष। उन्ति वर्तमानकाल
लट्लकार प्रथम पुरुष बहुवचन-प्रवेश करने हैं। 'यस्य प्रतिद्वारमुन्ति सेवाम्' (वीरो० १३/१२) शीलानि
पत्रत्वमुशन्ति यस्य' (सुद० पृ० १३२) उशी (स्त्री०) इच्छा, वाञ्छा, चाह, कामना, अभिलाषा। उशीरः (पुं०) [वश्+ईरन् कित्, उप्+कीरच ] खस, सुगन्धित
जड विशेष, जो गर्मी में शीतलता प्रदान करती है।
(वीरो० १२/१४) उषु (सक०) १. जलाना, प्रज्वलित करना, २. दण्ड देना.
पीटना, चोट पहुंचना। ३. उपभोग करना। उषः (पुं०) [उष्+क] १. प्रातः, प्रभात, सुबह। २. लम्पट, ३.
असर भूमि। उषणं (नपुं०) [उप्+ ल्युट्] १. काली मिर्च, २. अदरक, सौंठ। उषपः (उष+कपन्) १. अग्नि, तेज। २. सूर्य, रवि। उषस् (स्त्री०) [उष्+असि] प्रातः, प्रभात, प्रात:काल, सुप्रभात,
पौ फटना। उपसि दिगनुरागिणीति पूर्वा' (जयो० १०/११६) उपसि-प्रात:काले (जयो० वृ० १०/११६) २. सन्ध्यासमय'तरूणिमायमुषो ऽरूणिमान्विति' (जयो २५/५)
'उषस:-सन्ध्याकालसमस्य' (जयो० वृ० २५/५) उषा (स्त्री०) प्रातः, प्रभातकाल, प्रभातवेला। 'उषा बाणसुतायां
स्यात्प्रभातेऽपि विभावरौ' इति विश्वलोचन:' (जयो०
२२/२५) उषित (वि०) निवासित, स्थित, रहता हुआ। * प्रकाशित। उषीरः (पुं०) खस, एक सुगन्धित जड़। उष्ट्रः (पुं०) [उप्+ष्ट्रन्-कित्] ऊँट, मयवर्ग 'मापनामुष्ट्राणां
वर्ग: समूहो वेगतो व्रजति' २. भैंसा, ३. सांड। (जयो०
१३/३३। उष्ट्रदेश: (पुं०) उष्ट्र नाम का देश। उष्ट्रदेशधिपाः (पुं०) उष्ट्रदेश का राजा। (वीरो० १५/२९)
राजा यम, यम। सुधर्म स्वामिन् पार्श्व उष्ट्रदेशाधियो यमः।
(वीरो० १५/२९) उष्ट्रपिष्टः (पुं०) ऊँट की पीठ। उष्ट्र-समूहः (पुं०) ऊँट वर्ग, मय वर्ग। (जयो० १३/३३) उष्ट्रारोहिन् (वि०) सादिवर, उष्ट्रसवार। (जयो० १८/७३)
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