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अखण्डितः
अगस्त्यः
अखण्डितः (वि०) ०अविभाजित, ०अवाधित, अविनाशित, अग (भा०पर०अक०सेट-अगति, आगीत् अगात्, अगम) जाना, ०अक्षतित, ०अक्षरित।
गति करना। टेढ़े मेढ़े चलना। (सुद० ९७) अखल (वि०) [न खलः] सज्जन, सदाचारी। समाश्रयायैवम- | अग (वि०) [न गच्छतीति-गम्+ड] चलने में असमर्थ, थाखलानाम्। (जयो० २०/७५)
अगम्या (जयो० ३/२७) अखर्व (वि०) प्रशस्त, गौरवशाली, गुणगुर्वी, उदारचित्त वाले। अगः (पुं०) वृक्ष, तरु। (जयो० २८/३३)
(जयो० ६/६३) हे अखर्वे प्रशस्तरूपे। (जयो० वृ० अगच्छ (वि०) [गम्-बाहुलकात्] न जाने वाला। ६/१०३) नगौकसश्चाख।। (जयो० ६/८)
अगच्छः (पुं०) वृक्ष। (जयो० २८/३३) अखर्वसूत्री (वि०) दीर्घ विचारवान्। (जयो० ३/८५) मतिं क्व अगच्छाया (स्त्री०) वृक्ष की छाया। सम्पल्लवसमारब्धा
कुर्यान्नरनाथपुत्री भवेद्भवान्नैवमखर्वसूत्री। (जयो० ३/८५)। योऽगच्छायामुपाविशत्। (जयो० २८/३३) अगस्य छायाअखात (वि०) पोखर, प्राकृतिक गर्त।
वृक्षस्य छायामुपाविशत्। (जयो० वृ० २८/३३) अखिल (वि०)[नास्ति खिलम् अवशिष्टं यस्य] सम्पूर्ण, समस्त, | अगणित (वि०) संख्यातीत, असंख्य। (जयो० १/९४) पूर्ण। (सुद० पृ० ७०) ०एक मात्र।
अगणिताश्चगुणा गणनीयतामनुभवन्ति भवान्तकाः। (जयो० १/९४) अखिलकर्मन् (नपुं०) सम्पूर्ण कर्म, समस्त कार्य निखिल अगणित-कष्ट (वि०) अनन्तकष्ट युक्त, अधिक दुःख युक्त। क्रियाकाण्ड। (जयो० ९/५५)
(समु० ५/४) भगवतोऽखिलकर्मनिषूदनम्। (जयो० ९/५५) भगवान् की अगण्य (वि०) पर्याप्त संख्या, अधिक गणना। (जयो० १३/८७) पूजा निखिल कर्मों का नाश करने वाली है।
अगतिः (स्त्री०) आश्रयाभाव, उपाय का अभाव, विराम। अखिलकायः (पुं०) सम्पूर्णदेह, समस्त शरीर। वीक्षितुं अगति/अगती (वि०) नि:सहाय, निरुपाय, निराश्रय, आधारहीन।
यदधुनाऽखिलकाय:। (जयो० ४/४) ०समग्र अङ्ग। अगद (वि०) नीरोग, स्वस्थ, रोगरहित। (जयो० १४/४) अखिलज्ञ (वि०) सर्वविद, सर्वज्ञ, लोकमार्गदर्शी। (जयो० अगदंकारः (पुं०) [अगदं करोति-अगद् कृ+अण् मुमागमश्च]
वैद्य, चिकित्सक। श्रियाश्रितं सन्मतिमात्ययुक्त्याऽखिलजमीशानमपीतिमुक्त्या। अगदत् (अ+गद्-) बोली, कहती, प्रतिपादित करती। (जयो० १/१) जो अच्छी बुद्धि के धारक हैं, आत्मतल्लीनता अगदलम् (नपुं०) वृक्ष-पत्र, तरु पल्लव। (जयो० १४/४) के द्वारा जो सर्वज्ञ बन चुके हैं। अखिलज़ लोकमार्गदर्शिनम्। ___ अगस्य वृक्षस्य यानि दलानि पत्राणि। (जयो० वृ० १४/४) (जयो० वृ० १/१)
अगदलसच्छाया (स्त्री०) रोपापहारिणी सुन्दरछाया। अगदस्य अखिलदेशवासिन् (वि०) समस्त देशवासी, देशदेशान्तर वासी। गदरहितस्य लसन्ती या छाया। अथवा अगस्य वृक्षस्य यानि सम्पूर्ण देश निवासी। (जयो० वृ० ४/१)
दलानि पत्राणि तेषां सती या छाया। (जयो० वृ० १४/४) अखिलवेदित (वि०) सरर्वज्ञ, सर्वज्ञाता। (वीरो० १९/३४) अगम् (वि०) प्राप्त हुई। (सुद० ३/४६) अखिलाङ्गसुलभ (वि०) सर्वाङ्गपूर्ण, सभी तरह से योग्य। अगम्य (वि०) [न गन्तुमर्हति-गम्+यत्] दुर्गम, अनुलङ्घनीय। (जयो० ३/१५)
अकल्पनीय। अखेटिकः (पुं०) [नञ्+खिट्+पिकन्] (१) वृक्षमात्र, (२) वैरीश-वाजि-शफराजिभिरप्यगम्याम्। (जयो० ३/२७) शिकारी कुत्ता।
अगम्यामनुलङ्घनीयाम्। (जयो० वृ० ३/२७) अखेद (वि०) खेदवर्जित, दु:खरहित। (जयो० २/१३७) अगम्या (स्त्री०) व्यभिचारिणी। गमनं चैव अनुचितम्। ०कुत्सिता, अखुरः (पुं०) मूसक, चूहा। (वीरो० १४/५१)
कुमार्गगामिनी। अख्यातः (पुं०) प्रसिद्ध, लोकप्रिय। (सुद० १/४२)
अगरु (नपुं०) [न गिरति-गृ+उ] अगर, एक प्रकार का अख्याति (नपुं०) अपकीर्ति, अपयश।
चन्दन। अख्यातिकर (वि०) लज्जाजनक।
अगस्त्यः (पुं०) वृक्ष, देवदारु वृक्ष, प्रियाल। प्रियालागस्त्यादिअंगीकृत (वि०) स्वीकृत, अंगीकार। (जयो० ११८०) ___ वृक्षाणाम्। (जयो० वृ० २१/२८) अंग्रेज (वि०) गौराङ्क शरीरी, फिरङ्गी। (जयो० वृ० १८४८१) | अगस्त्यः (पुं०) [विन्ध्याख्यम् अगम् अस्यति, अस्+क्तिच्]
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