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अक्षर
अखण्डवृत्ति
अक्षर (वि०) पाप। (जयो० वृ० १/३९)
अक्षिपटलम् (नपुं०) नेत्र पटल, नेत्रभाग। अक्षरः (पुं०) इन्द्रिय विशेष।
अक्षिपुरम् (नपुं०) नेत्रभाग। अक्षरः (पुं०) शिव, विष्णु।
अक्षीण (वि०) [न क्षीणः] अहीन, पुष्ट, प्रभावशाली, पूर्ण। अक्षरक [स्वार्थकन्] अक्षर, स्वर।
(जयो० ११/५४) अक्षरमाला (स्त्री०) अक्षरपंक्ति, वर्णमाला। (जयो० ६/२३) | अक्षीण-कान्ति (वि०) न हीनकान्ति, प्रभास युक्त, आभायुक्त। सजाक्षराणमिति कर्णकूपयोः। (जयो० २०/७२)
(जयो० वृ० ११/५४) अक्षरयुगं (नपुं०) दो अक्षर, अक्षर समूह। (जयो० २५/३३) अक्षीणपथगत (वि०) अक्षि-समागत।
यदनुलोमतया पठितं वताक्षरयुगं विषयेषु मुदेऽर्वताम्। (जयो० | अक्षीणमहाणसम् (नपुं०) ऋद्धि विशेष, णमो अक्षीणमहाण२५/३३) ०युगल वर्ण समूह।
साणमित्यदः। (जयो० १९/८२) अक्षरशः (क्रि०वि०) [अक्षर+शस् (वीप्सार्थे)] एक एक अक्षुण्ण (वि०) अभिनव। विचक्षणेक्षणाक्षुण्णं। (जयो० ३/३८)
अक्षर, पूर्ण। (जयो० २०/७४) पूर्ण अक्षर सहित ०अक्षर __ अक्षुण्णमभिनवं क्षणदमानन्दप्रदं मतम्। (जयो० वृ० ३/३८) विन्यास युक्त।
अक्षुण्ण (वि०) अखण्ड, अक्षत, पूर्ण, अविजित। तव प्रणेऽक्षरशोऽनुगत्य वृद्धिं (जयो२०/७४)
अक्षुद्र (वि०) गम्भीर, (जयो० ६/५८) ०उत्तम विशिष्ट अक्षराभ्यासम् (नपुं०) अक्षरज्ञान, वर्णमालाभ्यास। (जयो० योग्य। वृ० १/३९) ०वर्ण शिक्षा।
अक्षद्रपदः (पुं०) उदार (जयो० १६/२७) योग्यस्थान समुचित अक्षरोधक (वि०) इन्द्रियजयी। अक्षाणां रोधकः परिहारकः। प्रतिष्ठा। (जयो० २८/५१)
अक्षुब्ध (वि०) क्षोभ रहित, दु:ख विहीन, अशान्ताभाव। अक्षलता [स्त्री०] अक्षमाला, सुलोचना की छोटी बहिन,
(सुद० पृ० ९८) शान्त, सौम्य चिंतनशीला अकम्पन राजा की पुत्री।
श्रीदेवाद्रिवदप्रकम्य इति योऽप्यक्षुब्धभावं गतः। (सुद० ९८) अक्षवश (वि०) इन्द्रियार्थ, इन्द्रियनिमित्त, विषय निमित्त, विषय
अक्षुब्धभाव (वि०) क्षोभरहित भाव, शान्तभावा (सुद० पृ० ९८) कामना।
अक्षोट: (पुं०) (अक्ष+ओट:) अखरोट। अक्षाणामिन्द्रियाणां देवशब्द-वाच्यानां येऽर्था विषयाः। (जयो०
अक्षोपरिप्रदेश (पुं०) स्कंध के ऊपर का भाग। वृ० २४/८९)
अक्षोभ् (वि०) अनुद्विग्न, क्षुब्धता रहित। (जयो० १/४३) अक्षाधीन (वि०) अक्षवश, इन्द्रियाधीन। (मुनिमनो०१९)
___०प्रशान्त ०दत्तचित्त। अक्षाधीनधिया कुकर्मकलना, मा कुर्वतो मूढ! ते।
अक्षौहिणी (स्त्री०) (अक्षाणां रथानां सर्वेषामिन्द्रियाणां वा ऊहिनी(मुनिमनोरञ्जनाशीति १९)।
षष्ठी तत्पुरुष)। [अक्ष+ऊह+णिनि+ङीप्] चतुरांगिणी इन्द्रियाधीन बुद्धि के कारण खोटे कर्मों का बन्ध करने
सेना। रथ, हाथी, घोड़ा और पदाति सहित सेना। वाले तेरी यहाँ क्या दशा हो रही है?
अखण्ड (वि०) अक्षत, अविनश्वर, विनाशरहित, सम्पूर्ण, अक्षार (वि०) प्राकृतिक लवण।
समस्त, अटूट। (वीरो० २/१२) व्यनपायी, विच्छेदरहित। अक्षि (नपुं०) [अश्नुने विषयान्-अस्+क्स्]ि अक्षिणी, नेत्र,
(जयो० १३/२७) चिदकपिण्डः सुतरामखण्डः। (भक्ति
सं० ३१) एक ज्ञानशरीरी अत्यन्त गुण गुणी के भेद से आंख, नयन। (जयो० ३१४) अक्षिवच्चरनराः सुदर्शिन:
रहित है। एक सा, समान। (जयो० ३/१४)
अखण्ड-निवेदन (वि०) पूर्ण सूचित, विशेष कथित। (जयोल गुप्तचर आंखों के समान दूर तक की बात देखते थे। अक्षिणी एव मीनौ तयोईितयी युग्यम्। (जयो० वृ० १/१)
२५/५४)
सुखवतस्तदखण्डनिवेदनम्। (जयो० २५/५४) सुख सम्पन्न अक्षिकृत (वि०) दृश्यमान्। (वीरो० २१/१७)
आत्मा की अखण्डता को सूचित करने वाला। अक्षिगत (वि०) दृश्यमान, दृष्टिगत।
अखण्डमहोमय (वि०) सकलतेजोमय। (जयो० ६/११३) अक्षिगोल (वि०) आंख का तारा।
अखण्डवृत्ति (स्त्री०) सततयोधन व्यापार, निरन्तरवृत्तिः। (जयो० अक्षिपक्ष्मन् (नपुं०) आंख की झिल्ली, आंख के पटल।
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