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अगाढ़ः
अग्निज्वाल:
(अगं विन्ध्याचलं स्त्यायति स्तम्नाति-स्त्यै क-वा अगः
कुम्भः तत्र स्त्यानः संहतः इत्यगत्य:) एक ऋषि, नक्षत्र। अगाढ़ः (पुं०) सम्यग्दर्शन का दोष। ०प्रगाढ़। अगात् (वि०) प्राप्त, आया। (सुद० ९७, १२३) अगात् (वि०) बिताना। (सुद० ४/१) तयोरगज्जीव नमत्यघेन।
(सुद०४/१७) अगाश्रित (वि०) अगान् वृक्षानाश्रिताः। वृक्षाश्रित, वृक्ष का
सहारा लेने वाले। (जयो० १४/७) अगारम् (नपुं०) घर, गृह, सदन। (जयो० २/१३९) स्थान
०वास निवास। स्थल। अगारि (वि०) गृहस्थी, गृह में रहने वाला। (सम्य० ११०)
(जयो० २/१३९) अगारिराट् (पुं०) गृहस्थशिरोमणिः, सद् गृहस्था (जयो०
२/१३९) अगं न गच्छन्तम् ऋच्छति प्राप्नोति (अग्+ऋ+अण्) गृह स्वामी ०गृहस्थ का उच्च व्यक्ति। अगारे निवसते स अगारि।
अणुव्रतोऽगारि। (त०सू० ७/२०) तस्य राट्र अगालित (वि०) अस्वच्छ, अनिर्मल, प्रदूषित, जीव युक्त।
(सुद० पृ० १२९) अगालितजलं [नपुं०] जीव युक्त जल। (सुद० १२९) अगिरः (पुं०) [न गीयते दुःखेन ] स्वर्ग। ०शुभस्थान ०उत्तमस्थल। अगुण (वि०) गुण रहित, दोष मुक्त। अगुण (वि०) निर्गुण। अगुणज्ञ (वि०) गुणों को न जानने वाला। तेनागुणज्ञोऽभवमेवमेतत्। ।
(भक्ति०सं० ४८) गुणवानों के गुण को जाना नहीं गर्व
अगोचर (वि०) [नास्ति गोचरो यस्य] ०अदृश्य, ०अज्ञेय,
ब्रह्म अतीन्द्रिय। अग्नायी (स्त्री०) [अग्नि+ऐ+डीष] अग्निदेवी। अग्निः (स्त्री०) [अंगति ऊर्ध्वं गच्छति अङ्ग+नि न लोपश्च]
अग्नि, वह्नि आशुशुक्षणि। (जयो० १२/७५) अग्नि: त्रिकोणः रक्तः। अग्नि त्रिकोण और लाल होती है। स्वयमाशु पुनः प्रदक्षिणीकृत आभ्यामधुनाशुशुक्षिणी। (जयो० १२/७५) आशुशुक्षणिरग्निः प्रथमं दक्षिणीकृतः। (जयो० वृ० १२/७५) अग्नि प्रथम दक्षिणीकृत हुई। अग्नि को समुद्रदत्तचरित्र में 'पावकेकिल' भी कहा है। 'समेत्यमन्त्रोत्थित-पावकेकिल (समु० पृ० ४४) अग्नि के कई भेद हैं-यज्ञीय अग्नि (गार्हपत्य अग्नि), आहवनीय, दक्षिण, जठराग्निः (पाचनशक्ति), पित्त, सोना आदि से उत्पन्न शुद्ध अग्नि, सामान्य अग्नि आदि। आगमों में धुंआ रहित अंगार, ज्वाला, दीपक की लौ, कंडा की आग, वज्राग्नि, बिजली आदि से उत्पन्न शुद्ध अग्नि, सामान्य अग्नि आदि। (देखें-जैनेन्द्रसिद्धान्त कोष पृ० १/३५) आध्यात्मिक अग्नियाँ क्रोधाग्नि, कामाग्नि और उदराग्नि भी अग्नियां हैं (महापुराण) पंचमहागुरुभक्ति में साधक
की पञ्चाचार रूप क्रियाओं को भी अग्नि कहा गया है। अग्नि-अस्त्रम् (नपुं) अग्नि अस्त्र, अग्नि उत्पन्न करने वाला अस्त्र। अग्नि-कर्मन् (नपुं०) अग्नि क्रिया। तय कर्म ऊर्जा सम्बंधी
क्रिया। अग्नि-कलित (वि०) अग्नि में तपाया, वह्नितापित। (जयो०
२।८१) अग्नि से संस्कारित। अग्निकायिक (वि०) अग्निजीव वाला। (वीरो० १९/) अग्नि-कुण्डम् (नपुं०) अग्निपात्र। अग्निकुमारः (पुं०) देव नाम। अग्निकेतुः (स्त्री०) अग्निध्वज, अग्नि पताका। अग्निकोण: (पुं०) दक्षिण-पूर्व का कोना। अग्निगतिः (स्त्री०) एक विद्या विशेष। अग्निजः (वि०) अग्नि से उत्पन्न। अग्निजन्मन् (वि०) अग्नि ज्वाला, अग्नि लपट। लौ, प्रदीप्त कारण अग्निजीवः (पुं०) अग्निकायिक जीव। अग्निज्वालः (पुं०) विजया की उत्तर श्रेणी का नगर,
विद्याधर नगर।
सरकारी से।
अगुणी (वि०) गुण रहित। अगुर-गमन (वि०) प्रफुल्लगमन, अच्छी गति (जयो० वृ० ।
६/११) अगुरु (नपुं०) अगुरु, धूम्र, गन्ध विशेष, विलेपन। (जयो०
१२/६८) दीर्घ ०व्यापक भाव का न होना। अगुरुपरिणामः (नपुं०) बिलेपन, शीतल परिणाम। चंदन
लेप। (जयो० १४/४१) अगुरुचंदनस्य परिणामो विलेपनम्।
(जयो० वृ० १४/४१) यद्वा लघुभावो (जयो० वृ० १४/१४) अगुरुलघु (वि०) षट्गुण हानि-वृद्धि गुण। अगूर (स्त्री०) सूक्ष्म, लघु (सुद० १३३) अगृह (वि०) गृह विहीन, घर रहित, अगार रहित। अगृहीत (वि०) मिथ्यात्व विशेष।
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