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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिविकट अतिशयिप्रधानं अतिविकट (वि०) भीषण, कष्टदायी। (जयो० ४/३१) स्यादुत्थि ताऽतिविकटैव समस्या। अतिविमल (वि०) निर्दोष, निर्मलता युक्त। अतिविमला (वि०) निर्मलता, निर्दोषता। अतिशयेन बिमला __ निर्दोषाऽसीत्। (जयो० वृ० ४/३१) अतिवियुज (सक०) [अति+वि+युज] सम्मिलित होना, मिलना, अनुरक्त होना, नियुक्त करना, केन्द्रित करना, प्रयुक्त करना, स्थिर करना। अतिवियुज् (अक०) वियोग होना, विरह होना। (जयो० ९/३) अतिवियुज्यते। अतिविशद (वि०) निर्मल, पवित्र। (जयो० ४/४९) मतिमतिविशदां ततश्चकोरदृशम्। अतिविस्तर (वि०) अधिक व्यापकता, बहुव्यापी, अतिप्रसरित। अतिविस्तीर्ण (वि०) उदार, उदाराऽतिविस्तीर्णा (जयो० ७० ३/१७) कुविंदवदुदारधारणा। (जयो० ३/१७) अतिवृत्तिः [अति+वृत्+क्तिन] अतिक्रमण, अतिगामी, ___अतिरंजिता। अतिवृद्ध (वि०) अधिक वृद्धता। (वीरो० २/१७) अतिवृष्टिः (स्त्री०) अत्यधिक वर्षा, प्रवल व्याधि। (जयो० १/११) जगत्यविश्रान्ततयाऽतिवृष्टिः (जयो० १/११) अतिवीरः (पुं०) [अतिशयितो वीरः] ०अतिवीर, प्रबल वीर, उत्कृष्ट योद्धा, चौबीसवें तीर्थंकर महावीर का उपनाम। अतिवीर्य (पुं०) अतिवीर्य नाम, जिसने नर्तकी के वेष में ___ शत्रुओं को बांधा, जो बाद में मुनि बन गया। अतिवेग (वि०) शीघ्रतर, बहुत वेग पूर्वक। अतिवेगत उद्यदायुधा अभिभूपानरयः प्रपेदिरे। (जयो० ७/११०) अतिवेगः (पुं०) राजा अतिवेग, पृथ्वी तिलकनगर का राजा, विद्याधरों का मुखिया। रामात्र पृथ्वीतिलकाधिपस्य नाम्राऽतिवेगस्य खगेश्वरस्य। अतिवेल (वि०) [अतिक्रान्तो वेला मर्यादा वा] सीमारहित, मर्यादा विहीन, अत्यधिक। अतिवेलंवः (पुं०) वरुण देव। अतिव्याप्त (स्त्री०) [अति+वि+आप+क्तिन्] ०अनुचित विस्तार, नियम का अनुचित प्रयोग, प्रतिज्ञा में अभिप्रेत वस्तु का मिलाना। लक्षण में लक्ष्य के अतिरिक्त, अन्य अनभिप्रत वस्तु का भी आ जाना। दोष विशेष। (हित संपादक १७) अतिशय (वि०) आधिक्य, अधिकता, प्रमुखता, उत्कृष्टता। (सुद० पृ० ८२) अतिशयः (पुं०) अतिशय, भगवान् के चौंतीस अतिशय-जन्म के दश अतिशय, केवलज्ञान के दश अतिशय और देवकृत चौदह अतिशय। १. स्वेदरहितता, २. शरीर निर्मलता, ३. दुग्धसम रुधिर, ४. वज्रवृषभनाराच संहनन, ५. समचतुरस्त्र शरीर संस्थान, ६. अनुपम रूप, ७. उत्तम गन्ध, ८. उत्तम लक्षण, ९. अनन्तबल और १०. हित-मित भाषण। केवलज्ञान-अतिशय-१. एक सौ योजन सुभिक्षता, २. आकाश-गमन, ३. अहिंसा, ४. भोजन, ५. उपसर्गपरिहीनता, ७. सब ओर मुख स्थिति, ८. निर्मिमेषं दृष्टि, ९. विद्याओं की ईशता, १०. नख-रोम-वृद्धि रहित और ११. अठारह महाभाषा। देसकृत अतिशय-१. संख्यात योजन वन समृद्धि, २. सुखदायक-वायु-प्रवाह, ३. मैत्रीभाव, ४. दर्पणवत् भूभाग, ५. सुगन्धित जलवृष्टि, ६. शस्य-रचना, ७. निर्मल आकाश, ८. शीतल-पवन, ९. जल की परिपूर्णता, १०. रोग-निरोधता, ११. दिव्यधर्मचक्र प्रवर्तन, १२. नित्यानन्द और दिव्य मात्र। अतिशयः (वि०) श्रेष्ठ, प्रमुखता, प्रशंसा युक्त। (जयो० वृ० २२/१६) अतिशय-उक्तिः (स्त्री०) अतिशयोक्ति वचन। अतिशयधर (वि०) प्रशंसा धारक। (जयो० वृ० २२/१६) अतिशयन (वि०) [अति+शी+ल्युट्] बड़ा, प्रमुख, अग्रगामी। अतिशय-पावन (नपुं०) अधिक पवित्र, पूर्ण स्पष्ट। (सुद० पृ०७०) ___ कलिमलधावनमतिशय पावनमन्यत्किं निगदाम। (सुद० पृ०७०) अतिशय-शोभन (वि०) अधिक शोभा युक्त। अतिशय-शोभावान् (वि०) धृतशंस, प्रशंसा धारण करने वाला। (जयो० वृ० २२/१६) धृतशंसोऽतिशय-शोभावानिति। अतिशयालु (वि०) [अति+शी+आलुच] अग्रगामी, आगे बढ़ने वाला। अतिशयिता (वि०) पुष्ट, पीन, प्रशंसा योग्य। पीनं पुष्टिमति शयितामापन्नम्। (जयो० वृ० १/३८) अतिशयितामापन्न (वि०) प्रशंसा को प्राप्त करने वाला। (जयो० वृ० ११३८) । अतिशयिन् (वि०) [अति+शी+णिनि] प्रमुख, श्रेष्ठ, प्रधान, उच्च, योग्य, यथेष्ट, समुचित। (भक्ति सं० २०) अतिशयिप्रधानं (नपुं०) अतिशय युक्त। श्री पार्श्वनाथं भुवि वर्द्धमानं, पादानलोक्तातिशयिप्रधानम्। (भक्ति सं० २०) For Private and Personal Use Only
SR No.020129
Book TitleBruhad Sanskrit Hindi Shabda Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherNew Bharatiya Book Corporation
Publication Year2006
Total Pages438
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary
File Size14 MB
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