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अभिसम्मुख
८८
अभीष्टदायक
अभिसम्मुख (वि०) सम्मुख, सामने, प्रत्यक्ष। अभिसारः (पुं०) [अभि+सृ+अच्] अनुगामी, अनुचर, मित्र। अभिसरणं (नपुं०) [अभि+सृज्+घञ्] सृष्टि, रचना, निर्माण। अभिसर्जनं (नपुं०) [अभि+सृज+ल्युट्] उपगमन, सम्मिलन,
सम्प्राप्ति, संयोग। अभिसर्ग (पुं०) उपहार भेंट, दान, प्रदान। अभिसात्वः (पुं०) [अभि+शान्त्व+घञ्] धैर्य, साहस बनाना। अभिसायं (अव्य०) सान्ध्य समय, सूर्यास्त काल। अभिसारः (पुं०) [अभि+सृ+घञ्] नियत मिलन, नायिका
का नायक के प्रति मिलन, काम, इच्छा। अभिसारिन् (वि०) [अभि+स+णिनि] गमनशील, प्रयाणशील,
उद्यत। चलने वाले। "शनकैः सम्प्रति सस्वजेऽभिसारी।" (जयो० १४/९१) अभिसरतीत्यभिसारी कामुकः (जयो० वृ० १४/१९) 'सैन्यसागर इहाभिसारिणः" (जयो० २१४८) सेनारूपसमुद्रेऽभिसारिणो-गमनशीलाः।" (जयो० वृ०
२१/८) अभिसिञ्च (सक०) [अभि+सिच] छोड़ना, समर्पण करना।
'कर-वारिरूहेऽभ्यसिञ्चदारादिति" (जयो० १२/५३) कर
कमल में जल की धारा समर्पण कर दी। अभिस (सक०) अभिसरण करना, गमन करना, ०अनुसरण
करना, गावस्तृणमिवारण्येऽभिसरन्ति नवं नवम्। (जयो० २/१४७) अभिसरन्ति-गच्छन्ति। (जयो० वृ० २/१४७) अभिसरन्ति तरां कुसुमक्षणे समुचिताः सहकारगणाश्च।
(वीरो० ६/३५) अभिसृत (वि०) सेवित, अनुसरित। भूराख्याता फलवत्ताया
विलसति सद्विनयाभिसृता। (सुद०८२) अभिस्नेहः (पुं०) [अभि+स्निह+घञ्] आसक्ति, अनुराग,
प्रेम, ०इच्छा, प्रीतिभाव। अभिस्फुरित (वि०) [अभि+स्फुर्+क्त] विकसित, प्रफुल्लित,
विकासयुक्त। अभिहत (वि०) [अभि+हन्+क्त] घातक, प्रहत, विदारक.
दु:खी, पीडित, शोक ग्रस्त।। अभिहतिः (स्त्री०) [अभि+हन्+क्तिन्] प्रहार, घात, चोट
करना, प्रताड़ना, पीटना, घायल करना। अभिहरणं (नपुं०) [अभि+ह ल्युट्] सन्निकट/समीप लाना,
जाकर लाना। अभिहवः (पुं०) [अभि-ह्वेअप्] आमन्त्रण, निमन्त्रण, आह्वानन अविहारः (पुं०) [अभि+हाघञ्] १. हरण करना, चुराना,
०ले जाना, छीनना, २. आक्रमण, आघात, प्रहार।
अभिहासः (पुं०) [अभि-हस्+घञ्] ०परिहास, ०हंसी, विनोद अभिहित (भू०क०कृ०) [अभि+धा+क्त] ०कथित, प्रोक्त,
०भाषित, सम्बोधित उद्घोषित। सम्यक्त्वयाभिहितम
स्मदुपक्रिया)। (जयो० १२/१४६) अभिहत (वि०) अभिघट, दोष विशेष, आहार दोष। अभी (वि०) निर्भय, निडर, भय मुक्त। स्वैः सहस्रतनयः
सुराडभी:। (जयो० ७/८७) अभीक (वि०) [अभि+कन्] ०आतुर, ०इच्छुक, कामुक,
०अभिलाषी, ०लालसाजन्य, विलासी। अभीक्ष्ण (वि०) [अभि+क्ष्णु+ड] सतत्, निरन्तर, सदा ही,
बार-बार। अभीक्ष्णं (अव्य०) निरन्तर, पुनः, सदैव, लगातार। अभीत (वि०) भयमुक्त, निडर, निर्भय। “यत्प्रतापतोऽभीतभी
भावात्।" (जयो० ६/५९) अभीप्सव (वि०) वाञ्छक, इच्छुक, कामना जन्य, चाहने
वाला। सर्वेऽप्यमी मङ्गलतामभीप्सवः। (जयो० ३/९) अभीप्सित (वि०) [अभि+आप+सन्+क्त] वाञ्छित, इच्छित,
चाहा गया, अभिलषित। "हर्षत्तयाशु मुहरस्मदभीप्सितानि" (जयो० १२/१४६) 'अभिप्सितानि अस्मदभिषितानि।"
(जयो० वृ० १२/१४६) अभीप्सिन् (वि०) [अभि आप्। सन् णिनि] इच्छुक, वाञ्छक,
चाहने वाला। अभीरः (पुं०) [अभि+ईर्+अच्] अहीर, गोपाल, गडरिया। अभीशापः (पुं०) [अभि शप्+घञ्] दोषारोपण, लाञ्छन, कोसना। अभीशुः (पुं०) [अभि+अश्+उन्] लगाम, बागडोर। अभीष्ट (भू०क०कृ०) [अभि+इष्+क्त] १. वाञ्छित, इच्छित,
अभिलषित, चाहा गया। (समु० २/१८, वीरो० ४/५३) "अभीष्ट-संभारती विशाला।" (जयो०८/३७) "स्फुटस्तनाभोग-मिषादभीष्टम्" (जयो० ११/३६) उक्त पंक्ति में 'अभीष्ट' का अर्थ सारभूत भी है।
मङ्गलकर-'सुरभिर्नुरभीष्टदर्शना मे।" (जयो० १२/२३) ०अभीष्टं- मङ्गलकरं दर्शन यस्याः सा। (जयो० वृ० १२/२३)
प्रमाणित-य: विज्ञैरभीष्ट: कुपलख्यया यः।' (जयो०११/४१) अभीष्टः (पुं०) प्रियतम, प्रिय। अभीष्टकृत्व (वि०) उचित फलदायी। "सम्पद्यते सपदि
तद्वदभीष्टकृत्वम्।" (सुद० ४/३०) अभीष्टदायक (वि०) वरदायक, मङ्गलकारक। (जयो० २२/३)
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