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अनुयोगः
अनुयोगः (पुं०) उपयोग, उद्देश्य, परीक्षा, ० अनुयोजन, ० संलग्नता, ०संयोग, ०उदय। (दयो० १०४, समु० ६ / २३, सुद० १२०, जयो० २ / ६५) भुक्त्यन्तर तज्जरणार्थमम्भोऽनुयोग आस्तामध एव किम्भो । (सुद० १२० ) अम्भो
योग - जल का उपयोग या जल का पीना यह अर्थ है । भवतामनुयोगेन तृणवत्सम्मतोऽप्यहम् । (दयो० १०४) भवतामनुयोगे-आपके सहारे से, या आश्रय से यह अर्थ कवि ने लिया है। सापीह सौभाग्यगुणानुयोगादनेन सार्द्धं सुकृतोपयोगा। (समु० ६ / २३) उक्त पंक्ति में 'सौभाग्यगुणा योगादनेन' में 'अनुयोग' का अर्थ संयोग है। जयोदय महाकाव्य के बीसवें सर्ग में प्रयुक्त 'अनुयोग' का अर्थ सम्बन्ध या संयोग भी है । यथा दुग्धस्य धारेव किलाल्पमूल्यस्तत्रानुयोगो । मम तक्रतुल्यः । (जयो० २०/८४) तत्र ममानुयोगः सम्बन्धस्तक्रतुल्योऽल्पमूल्य एव यथा तक्रसंयोगे दुग्धस्य दधिपरिणतिर्भूत्वा नवनीतसम्पत्तिकर्त्री स्वयमेव भवति । अनुयोगः (पुं०) सूत्र की अनुकूल योजना । अनुयोजनमनुयोगः
(जयो० वृ० १ / ६) 'अनु' का अर्थ पश्चात् भाव का स्तोक है। अर्थात् स्तोक सूत्र के साथ जो 'योग' होता है, वह 'अनुयोग' है। यह 'प्रथम- करण-चरण-द्रव्यानुयोग रूपेण । १. प्रथमनुयोग, २. करणानुयोग, ३. चरणानुयोग और ४. द्रव्यानुयोग से चार प्रकार का है। 'जयोदय' के प्रथमसर्ग में अनुयोग चतुष्टय पर इस प्रकार प्रकाश डाला है- " प्रकर्षेण योगो मनोनिग्रहाख्यः प्रयोगः, करणानां स्पर्शन-रसनादीनामिन्द्रियाणामनुयोगः संसर्गस्ते समेत्य, हे सुदृढोपयोग श्रावक ! अनुयोग चतुष्टये प्रथम-करण-चरण-द्रव्योपनामके शास्त्रचतुष्के नवता नवीनभावो बभूव। (जयो० वृ० १ / ३४ ) इस प्रथम सर्ग के चौंतीसवें श्लोक में 'करणानुयोग' का कथन मात्र है, परन्तु कवि ने चारों 'अनुयोगों' का कथन करके 'करणानुयोग' की विस्तृत व्याख्या की है। करणानुयोग नाम गणितशास्त्रम् (जयो० वृ० १/३४) प्रथमसर्ग के इक्कीस एवं बाइसवें श्लोक में भी अनुयोग पर प्रकाश डाला है। द्वितीयसर्ग में प्रत्येक अनुयोग के महत्त्व पर विचार किया गया है।
अनुयोग - चतुष्टय (वि०) चार अनुयोग सम्बन्धी प्रथम-करणचरण-द्रव्यानुयोगरूपेण ।
अनुयोगद्वार : ( पुं० ) अनयोगद्वार (जयो० १/३४) ग्रन्थ (जयो० १ / ६ ) अनुयोगवर्तिनी (वि० ) ०चक्रवर्तिनी, ० चक्राकार प्रवृत्ति । (जयो० ५ / ९२) ० आज्ञानुसार इधर उधर जाती ।
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अनुरणनं
अनुयोग - मात्रता ( वि०) ग्रन्थकर्तुरुद्देश्य भाव। (जयो० २/४२) अनुयोग- समयः (पुं०) अनुयोग शास्त्र । निमित्तकमुखेषु शास्त्रेषु,
अनुयोगसमयेषु । (जयो० वृ० २ / ६४ ) अनुयोगिनी (वि०) अङ्ग संगत, अङ्ग से लिपटी हुई। (जयो० १०/११५) अङ्गेनानुयोगोऽस्या अस्तीत्पनुयोगिनी । (जयो० १०/११५)
अनुयोजनं (नपुं० ) [ अनु+युज् + ल्युट् ] प्रवर्तन, प्रश्न, पृच्छा। एतकैर्निजहितेऽनुयोजनमस्ति । (जयो० २/५०) आत्मकल्याणे योजनं प्रवर्तनमस्ति । (जयो० वृ० २/६०) अनुयोग का भी अनुयोजन नाम है। अनुयोजनमनुयोगः (जयो० वृ० १ / ६ ) अनुयोजनं (नपुं०) बिना प्रयोजन, मनोमालिन्य, निरादर । (जयो०
४/२७) अर्ककीर्तिरनुयोजनमात्रगता वयमनर्थतयाऽत्र । (जयो० ४/२७)
अनुयोज्य (वि० ) [ अनु+ युज् + ण्यत् ] सेवक, अनुचर, सहभागी । अनुरक्त (वि० ) [ अनु + रज्+क्त] रत, अनुराग, प्रेम, आसक्ति,
निष्ठावान्, संतुष्ट, प्रसन्न। (जयो० वृ० ३/८८, अनुरक्ति (स्त्री० ) [ अनु+रंज्+क्तिन्] अनुराग, प्रेम, आसक्ति । (जयो० ४ / १५ ) छाययाऽभिददतीत्यनुरक्तिम्।
अनुरञ्ज (सक० ) [ अनु+रंज्] प्रसन्न करना, अनुराग करना, संतुष्ट करना । शरीरर्मन तादृशं हन्त यत्रानुरज्यते । (वीरो० १६/९)
अनुरञ्जक (वि०) प्रसन्न करने वाला, संतुष्ट करने वाला, अनुराग करने वाला।
अनुरञ्जनं (नपुं० ) [ अनु+रंज + ल्युट् ] अनुराग करने वाला, संतुष्ट करने वाला, आनन्दित करने वाला। (जयो० २५/१५) भुवि जनाभ्यनुरञ्जन तत्परः भवति वानर इत्यथवा नरः । (जयो० २५/१५)
अनुरञ्जित (वि० ) [ अनु+र+क्तिन् ] ०गुणानुरागी, प्रशंसनीय,
० अनुरागिणी । ० रंगे हुए। पादद्वयाग्रे नखलाभिधानोऽनुरञ्जितः । (जयो० ११ / १४)
अनुरञ्जिनी (वि० ) ० गुणानुरागी, ०प्रशंसनीय, ०अनुरागयुक्त,
o रंगे हुए। गृहस्थस्य समा भाति, समन्तादनुरज्जिनी। (हित संपा०७)
अनुरज्य (वि०) अनुरक्त, अनुराग युक्त, संतुष्ट । (जयो० २७/३६) सुद० ४/११, (अनुरज्यते सम्य, २४) घने वने ब्रह्मनेऽनुरज्य |
अनुरणनं (नपुं० ) [ अनु+रण् + ल्युट् ] ० अनुरूप लगना, ०प्रतिध्वनि, ०नुपूरध्वनि, ०घुंघरू प्रतिशब्द ।
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