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किमिच्छदानं
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किलाकं
किमिच्छदान (नपुं०) इष्ट दान क्या है? (सुद० २/१५) किरातः (पुं०) [किरं पर्यन्तभूमिम अतति गच्छतीति किरातः] किमिदानी (अव्य०) इस समय और क्या? 'किमिदानी न । चिलात. पर्वतीय जाति के लोग, भील या आदिवासी। दानिन् रस यामि।' (सुद० ७३)
किराती (स्त्री०) चिलाती, भीलनी। किमिह (अव्य०) और तो क्या? 'किमिह पुनर्न बभूव विषादी' किरिः (पुं०) [कृ-इ] सूकर, ग्रामसूकर , किरिश्व समस्तु (सुद० ११२)
हरिय॑स्य (जयो० २३/४९) २. मेघ, बादल उवराह। किमु ( अव्य०) क्या? कभी। किमु बोजव्यभिचारि-अङ्करः किरीटः (पुं०) मुकुट, शिरोपधान। (जयो० १७/६६)
(सुद० ३/८) क्षौद्र किलाक्षुद्रमना मनुष्य: किमु सञ्चरेत्। किरीदाच्छादनं (नपुं०) शिरोपधान, मुकुटधारक। (जयो०
(सुद० १३०) किमु मस्तकेन चरणं (जयो० २/११५) १७/६६) किमु न (अव्य०) क्यों नहीं। (सुद० ९२)
किरीटिन् (वि०) [किरीट+इनि] मुकुटधारी। किमुत (अव्य०) इधर क्या। (सुद०८१) क्यों नहीं। (वीरो० किर्मीर (वि०) [कृ+ईरन्] चितकवरा, रंग-बिरंगा। १/१०)
क्रियमाण (वि०) किया जाने वाला। (जयो० १/११) किन्न (अव्य०) जैसे कि (सुद० ७८)
किल (अव्य०) निश्चय या निर्धारण सम्बन्धी अव्यय। निश्चय किन्नहि (अव्य०) क्यों नहीं। (सुद०८१)
ही। (जयो० १/७) वीरो०१/५। अवश्यकिन्तरः (पु०) किन्नर नामक देव, गन्धर्वि। किन्नरनाम
अतएव-(सुद० ९९) कर्मोद्यात् किन्नरा। (त० वा० ४११) नहि किन्नर एष अपूर्व-पूर्णाऽऽशास्तु किलाऽपरिघूर्णा (सुद० ९९) विन्नरो (जयो० १०/७९)
अत्यन्त-एकाकिनं यथाजाते किलाऽऽनन्देन मण्डिता। (सुद० किन्नरी (स्त्री०) १. देवांङ्गना. गन्धर्वणी। (दयो० १०९) ९७)
कुत्सितनरी किन्नर (जयो० ११/१३) २. नीच जैसा कि 'भोगानात्मनाऽनुभवितुं किल रोगान्, (समु०५/३) स्त्री-अतिमार्दवतो नभश्चरी स्ववभातीव गुणेन किन्नरी। एवं, प्रकार-किलेत्येव प्रकारा परिस्थितिः (वीरो० २/४१) (समु० २०८)
वास्तव में-'किलार्य खण्डोत्तम नामधेयम्' (सुद० १/१४) किन्नु (अव्य०) क्यों नहीं, क्या नहीं। सागसोऽप्याङ्गिनो रक्षेच्छक्त्या ऐसा, इस प्रकार का-शयनीयोऽसि किलेति शापित (सुद० किन्नु निरागसः। (सुद० ४/४१!
३/२२) किन्मुचित् ( अव्य०) क्या कभी नहीं। (जयो० २/६५)
किन्तु-तकाञ्छतत्वेन किलारि नार्यः (जया० १/२६) किन्नेति (अव्य०) क्यों नहीं क्या नहीं। 'किन्नेति चेतसि स क्योंकि (जयो० १/२३) भद्रतया विचार्य। (सुद० ४/२४)
यद्यपि-'प्रवादस्य किल प्रपूर्ति (सुद० १/३५) कियंत् (वि०) कितना बड़ा, कितना बृहद, किन गुणों का. परन्तु-किलानकोऽप्येष पुन: प्रवीण:। (सुद० २/२) 'तक किस गिनती का।
पर्यन्त-दीर्थोऽहिनीलः किल केशपाशः। (सुद० २.८) घृणा, कियद्विधा (वि०) कतिपय प्रकारा, कितने प्रकार का। (जयो० कारण, हेतु, आशा, संभावना आदि में भी किल का २३.३०)
प्रयोग होता है। किरः (पुं०) [कृतक] सूकर।
किलः (पुं०) [किल+क] क्रीड, क्रीडा, खेल। किरकः (पुं०) [कृ+ण्वुल] १. लिपिक, लेखाकार, २. सूकर। किलकिंचितं (नपुं०) उत्तेजना, प्रेम-मिलन पर हास-परिहास। किरणः (पुं०) प्रभा. चमक, कान्ति, चन्द्र, सूर्य, प्रकाश। किल-किलः (पुं०) हर्ष, आनन्द, किलकारी, गुंजन, गुंज। (जयो० १,१०५)
किलकिलाटः (पुं०) छोंक। किलकिलाटवदङ्गगतं न तु किमु किरणक्षेपक (वि०) करकृत, प्रकाश करने वाला। (जयो० न पश्यसि गोरस-सारिक। (जयो० २४/१३७) वृ० १८.९४)
किलकिलायते-किलकारी करना, हर्षित करना। किरणमय (वि०) प्रकाश युक्त।
किलाकं (अव्य०) निश्चय ही, वास्तव में। भाग्येन तेनास्तु किरणमालिन् (पुं०) सूर्य, दिवाकर।
समागमोऽपि साकं किलाकं यदि नोऽथलोपि। (सुद० किरणसंसर्गः (पुं०) प्रभावलम्बन। (जयो० १/१०५)
२/२२)
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