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क्षमायाचना
३२८
क्षालनं
क्षमायाचना (स्त्री०) क्षमाप्रार्थना, क्षमा भावना, नम्रभावना। क्षमाशील (वि०) क्षमा युक्त, क्षमाधर, क्षमा भृत। (जयो० क्षमित (वि०) क्षमाशील, सहनशील, धैर्यवान्, क्षमा स्वभावी। क्षय (वि०) १. हानि, नाश, २. ह्रास, क्षीणता, न्यूनता, ३.
अंत, समाप्ति, विनाश। (सम्य० ८२/) ४. आत्यन्तिकी निवृत्ति। 'क्षयो निवृत्तिरात्यन्तिकी' (त० वा० २/१) क्षयो नाम अभावो-'खओ णाम अभावो' (धव० ७/९०) 'कर्माणां आत्यन्तिकी हानिः क्षयः' (त०श्लो०२/१) 'अत्यन्तविश्लेषः
क्षयः' (पंचास्किाय अमृत वृ०५६) क्षयः (पुं०) [क्षि+अच्] गृह, निवास, आवास। क्षयथु (स्त्री०) [क्षि+अथुच्] तपेदिक, खांसी। क्षयिन् (वि०) [क्षय+ इनि] क्षय होने वाला, ह्रास जन्य,
विनाशक, हीनता। क्षयिष्णु (वि०) [क्षि+इष्णुच्] क्षय करने वाला, विनाशक। क्षयोपशम: (पुं०) अनन्तगुण हीनता, क्षय और उपशम का
उदय। 'क्षयोपशम उद्गीतः क्षीणाक्षीणबलत्वत:'
(त०श्लोक०२/३) क्षयोपश्मलब्धिः (स्त्री०) क्षयोपशम की प्राप्ति। आत्मा को
अपने हित की ओर दृष्टिगत होना। विशुद्धि के कारण
अनंतगुणे हीन होकर उदीरणा को प्राप्त होना। क्षयोपशान्तिः (स्त्री०) क्षयोपशम की उपलब्धि। आत्मा को
अपने हित की ओर दृष्टिगत होना। 'एकास्ति लब्धि
दुरितस्यतादृक् क्षयोपशान्तिर्यत प्राप्य तादृक्। (सम्य० ४२/ क्षर् (अक०) १. बहना, २. प्रवाहित होना, ३. खिसकना,
सरकना, ४. निकलना, रिसना, टपकना, ५. घटना, मिटना। क्षर् (सक०) देना, प्रदान करना। 'सुष्ठु न क्षरति न दुग्धं
ददातीति' (जयो० १७/५४) क्षर (वि०) [क्षर+अच्] निस्सृत होने वाला, निकलने वाला,
पिघलने वाला। क्षरणं (नपुं०) [क्षर्+ल्युट्] बहना, टपकना, निकलना, रिसना,
झरना। क्षरद (वि०) झरते हुए। 'क्षरद-क्षर-सौध-सत्त्वरा' (जयो० वृ०
२६/४) क्षरन्निव्रजच्च तदक्षर-सौधस्त्वं' (जयो० वृ० २६/४) क्षर-सौधः (पुं०) स्वच्छतर चौक। 'सर्वतश्चत्वरस्य मङ्गल
मण्डलस्य पूरणे त्वरा' (जयो० २६/४) क्षरिणी (स्त्री०) नदी, सरिता, बरसात। (जयो० १/३)
क्षरिन् (पुं०) [क्षर्+इनि] टपकने का मौसम, बरसात का
समय। क्षल् (सक०) धोना, साफ करना, पोंछना। क्षालयति वस्त्र।
'वक्त्रं तथा क्षालयितुं जलं च। (वीरो० ५/९) वारा वस्त्राणि लोकानां क्षालयामास या पुरा। ज्ञानेनाद्याऽऽत्म
निश्चित्तमभूत् क्षालितुमुद्यता।' (सुद० ४/३६) क्षात्र (वि०) [क्षच्+ अण्] रक्षा से सम्बन्धित। क्षात्रं (नपुं०) क्षत्रिय कुल, क्षत्रियत्व भाव। क्षात्रकुलं (नपुं०) क्षत्रियकुल। सुताभुजः किञ्च नराशिनोऽपि न
जन्म किं क्षात्रकुलेऽथ कोऽपि। भिल्लाङ्गजश्चेत्
समभृत्कृतज्ञः गुरो ऋणीत्थं विचरेदपि ज्ञः।। (वीरो० १७/३१) क्षात्रयशः (पुं०) क्षत्रिय यश, क्षत्रियत्व प्रकाशक।
वाराशिवंशस्थितिराविभाति भोः पाठका, क्षात्रयशोऽनुपाती।
(वीरो० २/७) क्षान्त (भूक०कृ०) [क्षम्+क्त] सहिष्णु, धैर्यवान्, सहनशील
शान्तप्रिय। क्षान्तिः (स्त्री०) [क्षम्+क्तिन्] क्षमा, कोधादिनिवृत्तिः क्षान्तिः'
क्रोध निग्रह, शान्त भाव, धैर्य। 'दयेव धर्मस्य महानुभावा क्षान्तिस्तथाऽभूत्तपसः सदा ना। (वीरो० ३/१६) क्षान्ति-सहनशीलता रखना 'भूतव्रत्यनुकम्पा दान-सराग संयमादियोगः शान्तिः शौचमिति सवेद्यस्य' (त०सू०६/१२,
वृ०८९) (सम्य०८४) क्षान्तु (वि०) [क्षम्+तुन] सहनशील, धैर्यवान्, सहिष्णु। क्षाम (वि०) [क्षक्त] १. क्षीण, हीन, निर्बल, कृश, २.
दग्ध। ३. क्षुद्र, तुच्छ। क्षार (वि०) [क्षर्ण ] संक्षरणशील, तिक्त, कटु, खारयुक्त। क्षारः (पुं०) रस, अर्क, राव, शीरा। क्षारकः (पुं०) [क्षार+कन्] १. खार, रस, २. अर्क, ३. शीरा।
(जयो० ६/१०१) ४. मंजरी, कलिका, ५. पराग, ६.
राख। (जयो०६/१०१) क्षारणं (नपुं०) [क्षार+णिच्+ ल्युट्] दोषारोपण। क्षारिका (स्त्री०) [क्षर्+ण्वुल+टाप्] भूख, धुधा। क्षारित (वि०) रिसता हुआ, निकलता हुआ, प्रवाहित। शालनं (
न क्ष ल णिच ल्यट] प्रक्षालन धोना साफ करना, छिड़कना। 'चान्द्रीचयैः क्षालन-नामगूढे' (वीरो० २१/८) 'अम्भसा समु चितेन चांशुकक्षालनादि परिपठ्यतेऽनकम्। (जयो० २/८०) 'क्षालनेन वस्त्रस्य निर्मला भवति।' (जयो० १८/६६)
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