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आकुलता
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आक्षपाटिकः
आकुलता (वि० ) व्याकुलता, आसक्ति भावता, आहत, पीड़ित, आक्रमः (पुं०) [आक्रम्+घञ्] १. उपागमन, सन्निकट। २.
दुःखित। अपवर्गस्य विरोधकारिणी जनिभूराकुलतायाः। (सुद० आक्रमण। 'यतश्च भूतले त्वदङ्गजात आक्रमः कृतः। वृ० ११२, पृ० ७२)
(जयो० २०/२५) आकुलत्व (वि०) ०आकुलता, निराशता, निराशा भाव,
आक्रमणं (नपुं०) [आ+क्रम्+ ल्युट] १. आक्रमण, घात, ०दु:खत्व. ०भयत्व। निराधारत्व। (सुद० ३/३७)
प्रहार, टूट पड़ना। अन्योऽन्यजीविकास आक्रमणं न मनोऽरमायाति ममाकुलत्वम्। (सुद० ३/३७)
कुर्वन्त्वित्यर्थः। (जयो० वृ० २/११५) २. भयनाशकआकुलित (वि०) १. व्याप्त, परिपूर्णता युक्त, भरे हुए। श्री पशुपक्ष्याक्रमण भरनाशकं। (जयो० वृ० २/३१)
पयोधरभराकुलितायाः।' (जयो० ५/५५) २. पीड़ित, व्यथित, आक्रान्त (भृ० क० कृ०) [आक्रम् क्त] पराभूत, अधिकृत. दु:खित, उद्विग्न, अभिभूत।
पकड़ा गया, गृहीत। (जयो० वृ० ११/१२. वीरो० ८/२५) आकूणित (वि०) [आ-कूण+क्त] संकुचित, सुकड़े हुए। 'न स्यात्कोपि कदापि दु:खिततयाऽऽक्रान्तस्तथात्मभरी।' आकृतं (नपुं०) [आ-कू+क्त] प्रयोजन, अभिप्राय, कामना,
(मुनि० १६) २. पूरित, भरा हुआ-'शाखाभिराक्रान्त०भावना, विचार। 'स्वाकूतसङ्केतपरिस्पृशपि।' (सुद० दिगन्तराल:।' (सुद० २/१५) २/३२) इति श्रष्ठिसमाकूतं निशम्याह यतीश्वरः।
आक्रान्तिः (स्त्री०) [आ+ क्रम्+क्तिन] ०पराभूत, तिरस्कृत, आकृति (स्त्री०) [आ+कृ+क्तिन्] ०आकार, ०रूप, ०तदर्थ ०बहिष्कृत, पराजित, ऊपर किया गया, ०आरोहण।
रुप, तदाकार, प्रतिमा, प्रतिबिम्ब। २. लक्षण, चिह्न। आक्राम् (अक०) आक्रमण करना, मारना, घात करना। आकृष् (सक०) (आ+कृष्] ०खींचना, ०तोड़ना, भग्न 'आक्रामतश्चक्रपतेस्तुजी' (जयो० ८/६४)
करना, बनाना, ०हरण करना (जयो० वृ० ३/४६) आक्रामकः (पुं०) [आक्रम् एल् । आक्रमणकर्ता, प्रहारक, आकर्षताजं च सहस्रपत्रम्। (सुद० ४/१५)
अभिघातक, विध्वसंक। आकृष्ट (वि०) बलाद्वशीकृत्, आकर्षित, खिंचा हुआ, तत्पर | आक्रीडः (पं०) [आ क्रीड्। घन] खेल, क्रीड़ा, आमोद, हुआ। (जयो० वृ० १४८९) इति तच्चिन्तनेनैवाऽऽकृष्टः।
०प्रमदवन, उद्यान, आरामा रतेरिवाक्रीडधरौ धवन। (सुद० ३/४३)
(जयो० १७/४५) आकृष्टिः (स्त्री०) [आ+ कृष् क्तिन्] समाकर्षण, तन्मयता, आक्रीडकः (पुं०) [आ+ क्रीट् घन स्वार्थ कन] उद्यान,
तल्लीनता, आसक्ति, झुकाव। "दृष्टिः सृष्टिरपूर्वैवाकृष्टिः।" आरामगृह, बगीचा, उपवन, क्रीड़ी स्थल, विश्राम स्थान। (जयो० ३/५४) आकृष्टिराकर्षरूपा अपूर्वैव सृष्टिवर्तते। (जयो० १५/२०) (जयो० वृ० ३/५४)
आक्रीडधर (वि०) क्रीड़ा को धारण करने वाले, क्रीड़ा पर्वत। आकृष्टिकृत् (वि०) समाकर्षण युक्त, आकृष्ट करने वाला, (जयो० १७/४५) रतेरिवाक्रीडधरौ स्म भातः। (सुद० प्र० लुभाने वाला। बभाज भाजन्मभुवं तु बन्धुरं स्वरिन्दिराकृष्टिकृतः
१००) करं वरम्। (जयो० २४/८४)
आक्रीडनं (नपुं०) उद्यान, खेल स्थान। (जयो० १५/२०) आकृष्टुम् (विध्यर्थक) हर्तुम, हरण करने के लिए, खींचने के आक्रीडकद्रोनिलयः (पुं०) उद्यान वृक्षा (जयो० १५/२०) लिए, आसक्ति के लिए। (जयो० वृ० ३/४६)
आऋष्ट (भू० क० कृ०) [आश्क्ति ] निन्दित, तिरस्कृत, आकेकर (वि०) [आके अन्तिके कीर्यते इति वा आ+कृ+अप्+ अपमानित। टाप् -आकेकरा] अर्धनिमीलित, अर्ध प्रसारित अक्षि।
आक्रोश (पुं०) [आक्रश घज] क्रोध, उच्च-रुदन, अभिशप्त। आक्रन्दः (नपुं०) [आ+ क्रन्द्+घञ्] रोना, चिल्लाना, शब्द अधिक कोप, परीपह। करना, आर्तशब्द करण, रुदन।
आक्लेदः (पु०) [आ+ क्लिद्घञ्] गीलापन, आर्द्रता, आक्रन्दनं (नपुं०) रुदन, शब्दकरण, चिल्लाहट। आक्रन्द्यते सिञ्चित क्षेत्र। आक्रन्दनम्।
आक्षयूतिक (वि०) १. जुएं से प्रभावित। २. द्यूत क्रीड़ा से आक्रन्दित (वि०) शब्दित, रुदित। एवं रत्नविनिर्मितैश्च
युक्त। वलयैराक्रन्दितं वेगतः। (जयो० १७/१२९)
आक्षपाटिकः (पुं०) [अक्षपट ठक् ) घृतक्रीड़ा का निर्णायक।
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