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उपशान्त-कषायः
२१६
उपसर्या
उपशान्त-कषायः (पुं०) मोहकर्म का उपशम, ग्यारहवें
गुणस्थानवर्ती जीव। उपशान्तकषायः क्षीणकषाश्यच। (त० वा० ९/१) सर्वस्य मोहस्य उपशमात् क्षणाच्च 'क्षयोपशान्तिर्यत प्राप्य
तादृक्।' (सम्य० ४२, ७३) उपशान्त-मोहः (पुं०) मोह का उपशमन। उपशान्ति (स्त्री०) उपशम, शमन, क्षीण, दबना। उपशामं (नपुं०) उपशम, शान्त, सम्यग्दृष्टि। 'सम्यक्त्वमेतत्
प्रथमोपशामम्। (सम्य० ५४) उपशामना (स्त्री०) उपशान्त स्वरूप में स्थित रहना! (धव० ८५६) उपशायः (पुं०) पहरेदार का क्रमबद्धना से शयन। उपश्लोकित (वि०) प्रशंसा योग्य। (दयो० ११०) उपश्लिष्ट (वि०) छूते हुए, स्पर्शित। 'विटपैरूपश्लिष्टपयोधराम'
(जयो० ३/११३) उपश्रुतिः (स्त्री०) स्वीकार, प्रतिज्ञा, प्रण, अंगीकार। उपसंक्रमः (पुं०) ० प्रकम्प, ०कम्पन। 'क: सदोष
उपसंक्रमोऽनयः' (जयो० २/६०) उपसंग्रह (पुं०) चरणवंदन, चरण स्पर्श। उपसंख्यानकं (नपुं०) उत्तरीय वस्त्र, दुपट्टा, धोती, चादर।
(जयो० २१/६४) उपसंयोगः (पुं०) [उपासम्+युज्+घञ्] यमन, बंधन, बांधना।
दमन करना। उपसंरोहः (पुं०) [उप सम्+रुह्+घञ्] ऊपर उगना, ऊपर
लगना, लटकना। उपसंवादः (पुं०) [उप+सम्+वद्+घञ्] वार्तालाप, बातचीत,
करार, संवाद। उपसंह (सक०) त्यागना, छोड़ना। (सुद० ९६) उपसंहृत्य (सं०कृ०) त्यागकर, छोड़कर। 'उपसंहृत्य च
करणग्रामम्' (सुद० ९६) उपसंहरणं (नपुं०) [उप+सम्+ह+ ल्युट्] रोकना, निरोध। उपसंहारः (पुं०) सम्मेलन, मिलन, 'सहसा दयितोपसङ्गतात्'
(जयो० १०/६०) उपसत्तिः (स्त्री०) १. सेवा, सुश्रूषा, २. दान, ३. मिलन। उपसद (त्रि.लि.) समीप, निकट, पास। उपसदः (पुं०) दान। उपसदनं (नपुं०) १. समीपवर्ती स्थान, पड़ौस। २. निकट
जाना. गुरु के समीप स्थित होना. शिष्य बनाना। ३. सेवा, वैयावृत्य।
उपसंतान: (पुं०) [उप+सम्+तनु+घञ्] संतति, परम्परा, संयोग। उपसंन्यासः (पुं०) [उप+सम वि-अक्ष+घञ्] डाल देना.
छोड़ना, त्यागना। उपसमाधानं (नपुं०) [उप+सम्+आ+धा। ल्युट] एकत्र करना,
संग्रह करना, ढेर लगाना। उपसंपत्तिः (स्त्री०) [उप+सम्+पद+क्तिन्] पहुंचना, जाना,
समीप जाना, निकटस्थ होना, प्रविष्ट होना। (सुद० १२६) उपसम्पदः (पुं०) प्रविष्ट होना, पहुंचना। (समु० ४/२७) उपसंभाषः (नपुं०) [उप+सम्भाष्+घञ्] वार्तालाप, चर्चा,
अनुरोध. विचार। उपसम्मतिः (स्त्री०) आज्ञा आदेशा (जयो० १५८) उपसरः (पु०) [उप+सृ+अप्] अभिगमन, उन्मुख, अनुचरण। उपसरणं (नपुं०) [उप+सृ+ल्युट्] अभिगमन, अनुसरण, . सरणयुक्त होना। उपसर्गः (पुं०) [उप+सृज्+घञ्] १. धातु के पूर्व लगने वाले,
उपपद, वि, प्र. पर, अनु आदि। (जयो० १९/९३) व्याकरणनिर्दिष्टानुपसर्गान् धातूपपदानजानानोऽननकुर्वाणोऽपि' (जयो० १९/९३) २. उपद्रव, संकट, कष्ट, बाधा, हानि, आघात, व्याघात, प्रहार। (सुद० १३३) 'उपसर्गानुपद्रव'- (जयो० वृ० १९/९३) 'उपसर्गमुपारब्धवती कुर्तमिहासती' (सुद० १३३) ३. परीषह-क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नाग्न, अरति, स्त्रीचर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याञ्चना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार, पुरस्कार,
प्रज्ञा, अज्ञान, अदर्शन आदि। उपसर्गपदं (नपुं०) प्र, परा, अनु, अव, निस्, निर्, दुस्, दुर,
वि-आङ, नि, अधि, अपि उत् आदि उपसर्गपद। यथा धातुगतोऽर्थो वाच्यादि (वीरो० ४/२७) 'स उपसर्गपदेन
प्रादिना प्रव्यक्ततामाप्नोति' (जयो० वृ० १६/४२) उपसर्गहृत् (वि०) उपसर्ग को हरण करने वाला। ओं
सव्वोसहिपत्ताणं णमो स्यादुपसर्गहत्। (जयो० १९/७८) उपसर्जनं (नपुं०) [उप+ सृज् + ल्युट्] १. ग्रहण लगना, दोष
लगना, दोषारोपण, २. वस्तु का स्वरूप नष्ट होना,
समाप्त होना। ३. बाधा उपस्थित होना। उपसर्पः (पुं०) [उप सृप+घञ्] निकट/समीप जाना, पहुंचना। उपसर्पणं (नपुं०) [उप+सृप ल्युट] निकट जाना, समीप
जाना, प्रत्यागमन, अग्रसरण। उपसर्या (स्त्री०) [उप सृ+ यत्। टाप्] गर्भजन्या, सांड के
उपयुक्त गाय ऋजुमती गाय।
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