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अभ्यर्थना
अभ्यागमः
०परित्यक्त। "मारवाराभ्यतीतः सन्नथो नोदलताश्रितः।" | अभ्यर्हित (वि०) [अभि+अ+क्त] १. समादरित, सम्मानित, (जयो० २८/११) 'स्वयं हि तावज्जडताभ्यतीत।' (जयो० पूजित, प्रतिष्ठित, २. योग्य, तुल्य, समीचीन, उपयुक्त।
१/८५) अभ्यतीतः परित्यक्तः सन्। (जयो० वृ० १/८५) अभ्यवकर्षणं (नपुं०) [अभि+अव्+कृष्+ ल्युट्] अनुगमन अभ्यर्थना (स्त्री०) याचना, मांगना, चाहना। (जयो० वृ० करना, बहिर्निस्सरण, अभिगमन। १२/१४४)
अभ्यवकाशः (पुं०) [अभि+अव+काश+घञ्] स्वच्छ स्थान, अभ्यधात् (वि०) दिखलाना, अवलोकन करना। 'तनुसौर- खुला स्थान। भतोऽभ्यधाद्वरं।' (सुद० ३/२५)
अभ्यवस्कन्दः (पुं०) [अभि+अव्+स्कंद्+पञ्] शत्रु सन्निकट अभ्यधीत (वि०) अवलोकित (सम्य० ५/४)
आना, भिड़ना, आक्रमण करना, प्रहार करना, आघात, अभ्यधिक (वि०) देखों अभ्यधिक।
प्रतान। अभ्यधिका (वि०) ०अपेक्षाकृत अधिक, अत्यधिक,
अभ्यवहरणं (नपुं०) [अभि+अव्+ह+ल्युट्] निम्नोक्षेपण, विशालतम, ०साधारण, अनुपम। 'इत्यमभ्यधिका
अ:पतन, गिराना, फेंकना। ममास्त्य।' (जयो० १२/२२)
अभ्यवहारः (पुं०) [अभि+अव+ह+घञ्] आहारग्रहण, भुंजन, अभ्यनुज्ञा (स्त्री०) [अभि+अनु+ज्ञा+अङ्ग+टाप्] सहमति,
खादन, खाद्य-पेयन।
अभ्यवहार्य (वि०) [अभि+अव+ह+ण्यत्] आहार्य, भोज्य, स्वीकृति, आदेश, आज्ञा। अभ्यनुयोक्त्री (वि०) निपुण बनाने वाली, योग्य करने वाली।
खाद्य, खाने योग्य।
अभ्यसनं (नपुं०) [अभि+अस्+ ल्युट्] ०अनु + अभ्यास, (सुद० १२२) "चतुराख्यानेष्वभ्यनुयोक्तीं।" (सुद० १२२)
०अनवरत पाठ, ०क्रमशः अध्ययन, निरन्तर-चिन्तन। अभ्यन्तर (वि०) [अभि+अन्तरः] भीतरी, आत्म सम्बन्धी,
अभ्यसूचक (वि०) [अभि+असु+ण्वुल्] ईष्यालु, निंदक, आन्तरिक, निकटतम, घनिष्ट।
आरोपक, दोषारोपक। अभ्यन्तर-इंद्रियं (नपुं०) मन।
अभ्यसूया (स्त्री०) [अभि+असु+यक्+अ+टाप्] ईर्ष्या, डाह, अभ्यन्तर-करण (वि०) आन्तरिक कला।
घृणा, द्वेष, आरोप, विरोध। अभ्यन्तर-कारण (वि०) आन्तरिक करण, मन का हेतु।
अभ्यसिचि (वि०) अभिषिक्त, स्नापित। (जयो० ३/२२) अभ्यन्तरीकृ (सक०) [अभ्यन्तर+च्चि+कृ] दीक्षित करना,
अभ्यस्त (भू०क०कृ०) उचित, अध्ययन युक्त, अभ्यास गत। परिचित करना।
(जयो० वृ० २१/२४) विषय-वस्तु का अध्येता। अभ्यन्तरीकरणं (नपुं०) [अभ्यन्तर+च्चि+कृ+ल्युट्] दीक्षित
अभ्याकर्षः (पुं०) [अभि+आ+कृष्+घञ्] ललकारना, करना, परिचित करना।
आमना-सामना करना, भिड़ना।। अभ्यमनं (नपुं०) [अभि+अम्+ल्युट] प्रहार, घात, हानि।
अभ्याकाक्षित (वि०) [अभि+आ+काङ्ख्+क्त] मिथ्या अभ्ययः (पुं०) [अभि+इ+अच्] जाना, पहुंचना।
__ आरोप, निर्मूल कथन, निराधार प्रतिवेदन, इच्छा, आकांक्षा। अभ्यर्चनं (नपुं०) [अभि+अ+ ल्युट्] ०पूजन, ०अर्चन, | अभ्याख्यानं (नपुं०) [अभि+आ+ख्या+ल्युट्] ०आरोप लगाना, ० श्रद्धान, समादर, ०सम्मान।
निन्दा, मिथ्या आरोप, ०असत्य-कथन, ०लाञ्छन। अभ्यर्ण (वि०) [अभि+अद्+क्त] सन्निकट, समीप, पास। अभ्यागत (वि०) (भू०क०कृ०) [अभि+आ+गम्+क्त] अभ्यर्णं (नपुं०) सान्निध्य, साथ, सहभागी, सामीप्य।
०सन्निकट गया, ०समीपस्थ, आगतस्थ, अतिथि भाव अभ्यर्थनं (नपुं०) [अभि+अर्थ+ ल्युट्] प्रार्थना, अनुरोध, निवेदन, प्राप्त, समागत। 'अभ्यागतानभ्युपगम्य सुभ्रवः।" (जयो० अनुयन।
५/९२) अभ्यागतानुपरिस्थतान्-(जयो० वृ० ५/९२) अभ्यर्थिन् (वि०) [अभि+अर्थ+णिनि] प्रार्थना करने वाला, "अभ्यागताय च मां लक्ष्मीमिवाभि लाषापूर्तिकर्ती।" (जयो० याचक, निवेदक, प्रतिवेदक, ०अनुरोधक।
वृ० १२।९२) अतिथयेऽभ्यागताय। (जयो० वृ० १२/१२) अभ्यर्हणा (स्त्री०) [अभि+अ+युच्+गप्] प्रार्थना, पूजा, | अभ्यागमः (पुं०) [अभि+आ+गम्+घञ्] १. सन्निकट आना, अर्चना, सम्मान, समादर।
सामीप्य, अनुगमन। २. युद्ध, संग्राम, विद्वेष, कलह।
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