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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अनूप अनुणं (वि०) कर्जरहित, ऋण रहित । अनृत (वि०) अप्रशस्त वचन, असत् वचन, मिथ्या वचन, झूठ, असत्य । ऋतं सत्यार्थे न ऋतमनृतम्। (त०वा०७/१४) अनृत- भाषणं (नपुं०) मिथ्योपदेश । अनृतवादिन् (वि०) मिथ्यावादी । अनेक (वि०) विविध, नाना प्रकार, एक से अधिक, कई कई, कतिचित्, अलग अलग। कौतुकेन भरतेशसुतस्यैवं परस्परमनेक सदस्यैः। (जयो० ४/५०) 'अनेकसदस्य' से यहां 'कतिचित्सभासद' अर्थ किया गया। 'अनेकधान्यार्थ कृतप्रचारा ।' (सुद० १/८) ० विविधि प्रकार या अलग-अलग धान्य । अनेक कल्पांघ्रियान्यत्र सतां विवेक: । (सुद० १/ २०) नाना जाति के कल्पवृक्ष । अनेक - अध्याय (पुं०) पृथक्-पृथक् अध्याय, सर्ग (सुद० १/३२) अनेककालः (पुं०) अनेक समय (समु० ८/१४) अनेक गुणं (नपुं०) नाना गुण, पृथक्-पृथक् अस्तित्व | दार्शनिक दृष्टि में एक और अनेक का विशेष महत्त्व है। इसकी व्याख्या 'जयोदय' में विस्तार से की गई। 'सत्' सर्वथा एक नहीं है, क्योंकि वह अनेक गुणों का संग्रह रूप है। घृत, शक्कर और आटा आदि को मिलाकर लड्डू बनाया जाता है, अतः वह देखने में एक प्रतीत होता है। पर जिन पदार्थों के संग्रह से बना उसकी ओर दृष्टि देने से वह अनेक रूप हो जाता है। परन्तु जीवादि द्रव्य रूप 'सत्' अनेक गुणों के संग्रह रूप होने से लड्डू की तरह अनेक रूपता को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि घृत, शर्करा आदि पदार्थ अपना पृथक्-पृथक् अस्तित्व लिए हुए 'लड्डू' में संगृहीत होकर एक रूप दिखते हैं, इस प्रकार जीवादि द्रव्यों में रहने वाले ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुण अपनी अपनी पृथक् सत्ता नहीं रखते और न कभी जीवादि द्रव्यों से पृथक् थे, इसलिए 'सत्' में जो अनेकत्व है, वह उसमें अनेक गुणों के साथ तादात्म्य होने से है, संग्रह रूप होने से नहीं । अनेकजन्मन् (नपुं०) अनेक जन्म, नाना प्रकार की उत्पत्ति । (सुद० १२८) अनेकजन्मबहुत मर्त्यभावोऽतिदुर्लभः । अनेकधा (अव्य० ) [ नञ्+एक+धा] विविध रीति से। अनेक धान्यार्थ (वि०) ०नाना प्रकार के धान्य के लिए, • अलग-अलग धान्य के प्रयोजन हेतु । अनेकधान्यार्थमुपायकर्महत्सु शीरोचितधाम - भर्त्री । (सुद०२/२९) ५८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनेकान्तप्रतिष्ठा " अनेकधान्यार्थ कृत प्रवृत्ति" - (जयो० १९ / २९ ) अनेक प्रकार के अनाजों के उत्पन्न करने में प्रवृत्ति है। अनेकधा अन्य अर्थ कृति - प्रवृत्ति अनेक प्रकार के अर्थ-अभिधेय, व्यङ्गय और ध्वन्य अथवा अनेक मनुष्यों के प्रयोजन सिद्ध करने में प्रवृत्त हैं। अनेक पदं (नपुं०) अनेक पद या समूह यह सामान्य अर्थ है। आचार्य ज्ञानसागर ने इसका 'अनेकान्तपद' अर्थ करके विस्तृत व्याख्या की है" अनेकपदेन अन्ततां यान्ति बहुलरूपेण भवन्तोऽपि सुन्दरतामनुभवन्ति, अन्तशब्दस्य सुन्दरता वाचकत्वात्। यद्वाऽनेकपदेन सार्धमन्ततामनेकान्ताम्, अनेकेऽन्ता धर्मा एकस्मिन्नित्यने कान्तस्तस्य भावं स्याद्वादरूपतामित्यर्थः । (जयो० वृ० ५/४४) अनेकरूपं (नपुं०) नाना प्रकार, पृथक्-पृथक् रूप । 'विचारजाते स्विदनेकरूपे' (सुद० ८/४) अनेकविध कारणं (नपुं०) अनेक साधन। (जयो० २ / १०५) अनेकविधरूपः (पुं०) नाना प्रकार के रूप (वीरो० २० / २१ ) अनेकविधा (स्त्री०) सर्व प्रकार । (सुद० वृ० ७२) विनाशमनेकविधायाः । (सुद० ७२ ) अनेकशः (अव्य०) ०कई प्रकार, ०बार-बार, ० विविधरीति से, ० नाना प्रकार से मुहुर्मुहुः। (जयो० २/२६) पद्मयोनिप्रभृतिष्वनेकशो देवतां परिपठन्ति सैनसः । (जयो० २ / २६ ) अनेकशक्त्यात्मक वस्तु (नपुं०) अनेक शक्ति वाली वस्तु (वीरो० १९/८) अनेक-सदस्यः (पुं०) कतिचित्सभासद। (जयो० ४/५०) अनेकाथता (वि०) अनेक विभाग, पृथक्-पृथक् अध्याय । (सुद० १/३२) यस्मिज्जनः संस्क्रियतां च तूर्णं योऽभूदनेकाथतया प्रपूर्ण: । (सुद० १ / ३२ ) अनेकान्तः (पुं०) दर्शन का प्रमुख विचार । " अनेकेऽन्ता धर्मा एकस्मिन्नित्येनकान्तः " (जयो० वृ० ५/४४) अनेक + अन्ता अर्थात् नाना प्रकार के धर्म जिसमें पाए जाते हैं, वह अनेकान्त है। एक वस्तु में मुख्य एवं गौण दोनों की अपेक्षा अस्तित्व नास्तित्व आदि परस्पर विरोधी धर्मों का प्रतिपादन जहां हो, वहां अनेकान्त है। "अनेके अन्ता धर्माः सामान्या विशेष - पर्याया गुणा यस्येति सिद्धोऽनेकान्तः । " ( न्यायदीपिका ३ / ७६) जिसमें सामान्य विशेष, पर्याय व गुण रूप अनेक अन्त या धर्म हैं, वह अनेकान्त है। अनेकान्तपदम (नपुं०) अनेकान्तवाद ( वीरो० १९/२२) अनेकान्तप्रतिष्ठा (स्त्री०) अनेकान्त सिद्धान्त की पुष्टि । अनेकान्त For Private and Personal Use Only
SR No.020129
Book TitleBruhad Sanskrit Hindi Shabda Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherNew Bharatiya Book Corporation
Publication Year2006
Total Pages438
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary
File Size14 MB
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