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असुनाथ:
१३३
अस्तगत
असुनाथः (पुं०) प्राणनाथ, स्वामी। 'तवासुनाथोऽशनि- असूनु (पुं०) अपुत्र, पुत्र नहीं, सन्तान अभाव। "यूनोऽप्यसूनोरपि।' घोषहस्तितां।' (समु० ४/३३)
(जयो०८/३) असुधारणं (नपुं०) जीवन धारण, प्राण धारण।
असूय (अक०) ईर्ष्या करना, द्वेष करना, अप्रसन्न होना, घृणा असुपवनं (नपुं०) प्राणवायु। 'भुजगोऽस्य च करवीरो० करना, असम्मान करना।
द्विषदसुपवनं निपीय पीनतया।' (जयो० ६/१०६) असूयक (वि०) [असूय्+ण्वुल] ईर्ष्यालु, द्रोही, घृणाकरी, अ-सुभग (वि०) ०असुन्दर, कुरूप, ०रूपहीन, बुरा, अपमानी।
अशोभनीय, अदर्शनीय। 'श्रवणासुभगं सतां हृदयविदारक असूयनं (नपुं०) घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, अपमान, निन्दा, डाह।
वृत्तं लिखितं कुतः सम्भव्यताम्।' (दयो० पृ०६४) असूया (स्त्री०) क्रोधपरिणाम, कुपितभाव, क्रुद्धता, ईर्ष्या, असुभंग (वि०) प्राणघात, जीवननाश।
घृणा, द्वेष, अपमान, निन्दा, डाह, स्पर्धा। 'तदसूयाफलमस्य असुभृत् (पुं०) जीवित प्राणी, जीवनयुक्त जीव।
सद्रदा।' (जयो० १९/६३) असूया/स्पर्धा। (जयो० वृ० असुमतः (पुं०) वैर, द्वेष, वैमनस्व। (जयो० ९)
१०/६३) वाचा वा श्रुतवाचने निरतया भूया असूयाघृणी। असुमतिः (वि०) शरीरधारिणी, जीवनधारिणी।
(मुनि०८) सदा हे साधो प्रभवति असुमति कर्म। (जयो० २३/७६) असूयाघणी (वि०) ईर्ष्या उत्पन्न करने वाले। (मुनि०८) असुरः (पुं०) १. दैत्य, राक्षस। (सम्य० ८४) २. अनुराग जन्य असूर्य (वि०) सूर्य रहित, रविविहीन।
देव, सुरों से विपरीत। अहिंसाद्यनुष्ठानरतयः सुरा नाम, असूर्यम्पश्य (वि.) [सूर्यमपि न पश्यति-दृश्+खश्+मुम् च] तविपरीता: असुराः। (धव०१३/३९१)
सूर्य दर्शन को नहीं करने वाला, चक्षुविहीन। असुर-कुमारः (पुं०) असुर कुमार जाति का देव।
अस्रः (पुं०) शोणित। अनं तु शोणिते लोभे। 'इति वि०' अ-सुरभी (स्त्री०) १. सुगन्ध का अभाव, सुरभी का लोप। (जयो० १५/२४) असुरभी (स्त्री०) प्राणवायु रहित, भयरहित, भय-वर्जित। असृक् (नपुं०) रक्त, रुधिर। मनुष्यं परासक् पिपासुम्। (जयो० प्राणवायुश्चाभीर्भय- वर्जितः। (जयो० १९/९०)
२/१२८) असुर-हित (वि०) असुरों के लिए हितकारी। 'हे धीश्वरासुररहित असृज् (नपुं०) परेषाभसृजं रक्तं पिपासु-जयो० वृ० २/१२८) __ सहसान्धकारम्।' (जयो० १८/२०)
'असृग् रक्तं रससम्भवो धातुः।' रस से उत्पन्न होने वाली असु-रहित (वि०) प्राणरहित, निष्प्राण, जीव शून्य। (जयो० रक्त रूप धातु।
वृ० १८/३०) 'असुरहितमसुभिः प्राणैर्ररहितमुतासुरेभ्यो। | असेचन् (वि०) मनोहर, रमणीय, सुन्दर, रम्य। असु-राजिः (स्त्री०) प्राणपंक्ति, जीवन धारा, प्राण परम्परा। असोढुं (वि०) असमर्थ, अशक्नुवान्। असोढुमीशेवोरोजभर ___ "श्वशुराश्वसुराजिरेषका" (जयो० १२/२०)
निपपातोपरि धवस्य त्वरम्। (जयो० १४/२७) असुर-रिपुः (पुं०) राक्षसों का शत्रु।
असौष्ठव (वि०) सौन्दर्यविहीन, रमणीयता रहित, कुरूप, असुरसा (स्त्री०) तुलसी का पौधा।
लावण्यता मुक्त, सौम्यता रहित। असुरहन् (पुं०) राक्षसों का हननकर्ता, इन्द्र।
अस्खलित (वि०) ०दृढ़, स्थिर, निश्चल, अकम्प, अक्षत, असुलभ (वि०) ०अप्राप्त, ०कठिनाई से प्राप्त होने वाला,
अटल। ० अलब्ध, ० अनुपलब्ध, ० अप्राप्त। क्षणिकनर्मणि अस्त (भू०क०कृ०) [अस्+क्त] ०फेंका गया, क्षिप्त, निजयशोमणिमसुलभं च जहातु। (सुद० पृ० ९८)
निक्षिप्त, परित्यक्त, समाप्त, पूर्ण। असुलोपी (वि०) प्राणलोपी, प्राणनाशक, जीवन नष्टकर्ता। | अस्तः (पुं०) [अस्यन्ते सूर्यकिरणा यत्र-अस् आधारे क्त] १.
असत्यवक्ताऽनवधानतोऽपि, स्यां चेद्भवेयं त्वनयाऽसुलोपी। अस्ताचल, पश्चिमाचल। २. नाश, समाप्त, पूर्ण, विराम। (समु० ३/२२)
(जयो० १५/८) ३. सूर्य छिपना, अस्त हो जाना। असुहतिः (वि०) प्राण घातक जीवनक्षति. कारक, अस्तगत (वि०) १. नष्ट, नाश, समाप्त, क्षय। (जयो० वृ० "असुहतिष्वपि दीपशिखास्वरम्।' (जयो० २५/२४)
१५/८) २. सूर्यपतन, अस्ताचल की ओर गया, भङ्ग। सूर्ये असूतिः (स्त्री०) प्रसूति अभाव। (वीरो० १६/२५)
भङ्गं परिप्राप्तवति सति अस्तगते। (जयो० पृ० १५/८)
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