________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
काकुत्स्थ:
२७५
काञ्जिकं
काकुत्स्थः (पुं०) वंश विशेष। काकुदं (नपुं०) तालु। काकुपूर्वदृष्टान्तः (पुं०) विरुद्ध अर्थ को व्यक्त करने वाला
दृष्टान्ता अयि विवकितयैव वसेर्मन इह च किं वसतोऽपि विपत्पुनः। किमुत गरुडिनो विलसन्मते जग, भुक्तमपीति विषायते।। स्पष्ट बुद्धि वाले विषवैद्य को सर्पदंश क्या विष रूप होता
है? अर्थात् नहीं। काकुभावः (पुं०) तर्क-वितर्क। किमतदित्थं हर्दि काकुभावं
कुर्वन् जनानां प्रचलत्प्रभावः। काकुलेशः (पुं०) तर्क युक्त। (वीरो० १४/२१) (वीरो०
५/१) काकूत्थ (नपु०) प्रश्नवाचक चिह्न। किमसौ मम सौहृदाय
भायादिति काकूत्थमनङ्गनङ्गमङ्ग लायाः। (जयो० १२/१५) काकूरिक्तरलंकारः (पुं०) विरुद्ध अर्थ को प्रकट करने वाला
दृष्टांत। निवारिता तापतया घनाधना, घना वनान्ते सुरतश्रमोद्भिदः। भिदस्तु किं वा निशि संगतात्मनां मनागपि प्रेमवतामुताह्रि वा।। (जयो० २४/१९) सधन मेघों के विद्यमान रहने से जहां दिन की गर्मी प्रेमी मनुष्यों के
उपभोग में बाधक है। काकोलः (पुं०) [कक्+णिच् ओल] कौवा उड़ाना। काकोड्डायनं (नपुं०) काक उड़ाना। चिन्तामणिं क्षिपत्येष,
काकोड्डियनहेतवे' पर्वतीय काक! काक्षः (पुं०) तिर्यक् दृष्टि, तिरछी चितवन। 'कुत्सितं अक्षं यत्र' काक्षं (नपुं०) भुकुटी चढ़ाना, त्योरी तानना। कागः (पुं०) काक, वायस, कौवा। 'यवेसु कागस्य यथा __ कदापि। (समु० ३/२१) काङ्गलेशः (पुं०) कांग्रेस (दयो०५२) काङ्क्ष (सक०) चाहना, इच्छा करना, कामना करना,
लालायित होना। कांक्षा (स्त्री०) [काश्+अ+टाप्] इच्छा, चाह, अभिलाषा,
कामना, कंखा, आकांक्षा। (सम्य० ९१) इह लोक-परलोक
विषयाकांक्षा। काङ्क्षिन् (वि०) [काङ्क्षः णिनि] इच्छुक, अभिलाषा करने
काचनं (नपुं०) [कच्+णिच् ल्युट्] धागा, डोरी। काचनकिन् (पुं०) [काचनक+ इनि] हस्तलिखित ग्रन्थ। काचनापि (अव्य०) किसी का भी। (जयो० वृ० ३/६३) काचांशा (पुं०) दर्पण खण्ड, दर्पण का टुकड़ा। 'नक्षत्र
काचांशंतताग्र एष' (जयो० १५/२६) काचित् (अव्य०) कोई भी, कितनी ही (जयो० ५/५९) ___ 'चेष्टा स्त्रियां काचिदचिन्तनीया' (सुद० १०७) काचिदन्य (वि०) अन्य कोई भी, दूसरे कितने ही। 'तदर्थ
मेवेयमिहास्ति दीक्षा, न काचिदन्या प्रतिभाति भिक्षा।' काचिदपि (अव्य०) कुछ भी। (दयो० ७५) (वीरो० ५/४) काचूकः (पुं०) [कच्+ऊकञ्] मुर्गा, चकवा। काजलं (नपुं०) स्वल्प जल, थोड़ा पानी। काञ्चन (वि०) सुनहरी, स्वर्णमयी, पीतिमा युक्त। काञ्चनं (नपुं०) सुवर्ण, सोना। (जयो० २७/५४) काञ्चनकं (नपुं०) सुवर्ण सोना। काञ्चनमिति कृत्वास्वार्थ कः
प्रत्ययः। काञ्चनकलशाली (स्त्री०) स्वर्णमयी कलशः। (वीरो० ७/३४)
(जयो० वृ० २७/५४) काञ्चनकाञ्चनं (नपुं०) स्वर्ण स्तुति, संसारी व्यक्ति की स्तुति
स्वर्ण की ओर होती है। 'मनः कञ्चनमेव काञ्चनमिति
कृत्वा स्वार्थ कः प्रत्ययस्तस्य अञ्चनाय सुवर्णस्यैव स्तवनाय' काञ्चनगिरिः (पुं०) कंचनापर्वत। (समु० ५/३१) 'किञ्च
काञ्चनगिरेः सुगुहाया'। काञ्चनचित्तवृत्ति (स्त्री०) स्वर्णमय छवि। (सुद० ११८) (जयो०
२७/५४) काञ्चनछवि (स्त्री०) स्वर्णमय छवि, स्वर्णसदृशमूर्ति। (सुद० ३/१४) काञ्चनस्थितिः (स्त्री०) स्वर्ण की स्थिति, स्वर्णरूपिणी, सुन्दर
रूप वाली। 'काञ्चनस्थितिमती वसुन्धरा' (जयो० २१/४२) काञ्चना (स्त्री०) रतिप्रभदेव की देवी/रानी। भार्यां निजस्य
चतुरामिह काञ्चनाख्याम्। (जयो० २४/१०१) काञ्चनारः (नपुं०) कचनार तरु। काञ्ची (स्त्री०) १. मेखला, करधनी, कंदौरा। २.दक्षिण भारत
का एक नगर, काञ्ची नगरी। (जयो० ५/३५) काञ्चीगुणं (नपुं०) प्रकोष्ठ 'कक्षा तु गृहे काञ्चीप्रकोष्ठयोः' ___ इति विश्वलोचनः' (जयो० १७/६७) काञ्चीपति (पुं०) काञ्ची नगर का राजा। (जयो० ५/३५) काञ्चीफलं (नपुं०) गुञ्जाफल, चिरमीफल। (जयो० ६/३५) काञ्जिकं (नपुं०) कांजी, खट्टा पेय पदार्थ।
वाला।
काचः (पुं०) [कच्+घञ्] शीशा, स्फटिक। (वीरो०८/१२)
(जयो० वृ० ९/७९) 'स्वतन्त्र्येण हि को रत्नं त्यक्त्वा कायं सयेष्यति। (जयो० ७/१)
For Private and Personal Use Only