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आपादः
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आपादः (पुं०) [आ+पद्+घञ्] प्राप्ति, उपलब्धि, पारितोषिक, पारिश्रमिक
आपादनं (नपुं० ) [ आपद्+ णिच् + ल्युट्] १. पहुंचाना, उपस्थित करवाना। २. प्रकाशित करना, तल्लीनता होना। आपाद्य (सं०कु०) बैठकर स्थित होकर उपस्थित होकर। 'भास्वानासनमापाद्य' (सुद० वृ० ७८)
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आपालि (स्त्री०) [आ.पा. क्विप् आपा, तदर्थमलतिअल+इन] जूं, बालों में पड़ने वाला कीड़ा, द्वीन्द्रिय जीव । आपीडः (पुं०) [आ+पीड्घञ्] पीड़ा देना, कष्ट पहुंचाना,
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दुःख उत्पन्न करना, मसलना। आपीन (भू० क० कृ० ) [आप्यै का] पुष्ट, बलिष्ट शक्तिमान्, मोटा, स्थूला
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आपूतिक (वि०) [अपूप ठक] पुए बनाने वाला। आपूपिक: (पुं०) हलवाई।
आपूपिकं (नपुं०) पूओं का समूह।
आपूण्य (पुं०) (अपूपाय साधु] आटा
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आपूर (पुं०) [आ+पृ+घञ्] १. धारा प्रवाह, २. भरना, पूरा करना, पूर्ण रखना ।
आपूरणं (नपुं० ) [ आ+पृ+ ल्युट् ] भरना, पूर्ण करना । आपूरयन (वि०) पूर्ण करने वाला। (सुद० २/१५) आपूर्ति (स्त्री०) पूरा करना, पूर्ण करना। तद्वाच्छापूर्ति वितरामि । (सुद० ९२) वस्तु की पूर्ति करना।
आपूषं (नपुं० ) [ आ + पूष्+घञ् ] धातु विशेष | आपृच्छ ( सक०) १. पूछना, वार्तालाप करना, २. विदा करना, विसर्जन करना। ३. अनुमति चाहना समं समालोच्य स आत्ममन्त्रिभिस्तदेवमापृच्छय निमित्ततन्त्रिभिः (जयो० ३/६६ )
आपृच्छा (स्त्री० [आ+पृच्छ-टाप्] ०पूछना, ०संलाप करना,
• वार्तालाप करना, ० अनुमति लेना, आपृच्छा-प्रतिप्रश्नः (भ० आ० टी० ६९ ) ' आपृच्छा स्वकार्यं प्रति गुर्वाद्यभिप्रायग्रहणम्' (मूला०वृ० ४/४)
आपेक्षिक (वि०) अपेक्षा कृत, एक-दूसरे की विशेषता युक्त। आपेक्षिकं बदरामलक-बिल्वतालादिषु।" (स० सि० ५/२४) आपेक्ष्य (वि०) अपेक्षा युक्त। (वीरो० २०/२० ) आ... (पुं०) सर्वज्ञ, ०ईश्वर, ०वीतरागी पुरुष, ० हितोपदेशी । 'यो यत्राऽविसंवादकः स तत्राऽऽप्तः (अष्टशती ७८) जागमो ह्याप्तवचनमाप्तं दोषक्षायाद् विदुः ।' वीतरागोऽनृतं वाक्यं न यूवार्द्धत्वसम्भवात्।' (धव० ३/१२)
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आप्रदक्षिणं
आप्त (भू० क० कृ० ) [ आप् + क्त ] १. प्राप्त किया, ०उपलब्ध किया, पहुंचा, ०उपस्थित हुआ।
२. विश्वसनीय, प्रामाणिक, पूजनीय, निष्ठावान्, विश्वस्त पुरुष, योग्य पुरुष । आप्तडिम्बं (नपुं०) लब्ध प्रमाण, प्राप्त प्रमाण, आप्तनयः (पुं०) समुपलब्ध नय, नीतिमार्ग। (जयो० ९/३०) आप्तपथरीतिः (स्त्री०) सर्वज्ञमार्ग परम्परा समन्ताद्भद्रविख्याता,
सटीक प्रमाण ।
श्रियो भूराप्तपथरीति: । ' (सुद० ८३)
आप्तपीक्षा (स्त्री०) आचार्य समन्त भद्र की एक रचना। (वीरो० १९ / ४४ )
आप्तपुरुषः (पुं०) सर्वज्ञ। (जयो० वृ० ३/५) आप्तमार्ग: (पं०) सर्वज्ञपथ
आप्तलोकः (पुं०) कल्याणमार्ग, ईशपथ, हितकारी दर्शन । लोकस्य य करुणयाभयमाप्तलोकमात्यन्नमो भगवते ऋषभाय तस्मै । (दयो० पृ० ३०)
आप्तशाखा (स्त्री०) व्याप्तकीर्ति शाखाओं से व्याप्त (सुद० ४/२) समन्तादाप्तशाखाय प्रस्तुताऽस्मै सदा स्फीति: । आप्तशुद्धिः (स्त्री०) शुद्धि प्राप्त हित प्राप्त 'व्यंपायतः पूर्णतयाऽऽप्तशुद्धेः । ' ( भक्ति० २८) आप्तोक्ति (स्त्री०) आप्त कथन, सर्वज्ञ निरूपण । आप्तोक्ति परम्परा (स्त्री०) आप्तकथन की परिपाटी, सर्वज्ञवाणी का क्रम (जयो० वृ० ३ / ११५) आप्तोक्ति-विशेषः (पुं०) आप्तकथन विशेष, सर्वज्ञवाणी विशेष | (जयो० वृ० ३/११५)
आप्तोपज्ञः (पुं०) आप्तागम, सर्वज्ञवाणी । 'श्रीयुक्तः सम्यगागम आप्तोपज्ञो ग्रन्थः' (जयो० पृ० ३ / ११५)
आप्तिः (स्त्री० ) [ आप् + क्तिन्] प्राप्ति, अधिग्रहण, सम्पूर्ति, आपूर्ति ।
आप्य (वि०) [ अपाम् इदम्- अणू ततः स्वार्थे प्यब्] जलमय, नीरयुक्त ।
आप्य (वि० ) [ आप् + ण्यत् ] उपलब्धि योग्य, प्राप्ति योग्य। आप्यान (भू० क० कृ० ) [ आ + प्याय क्त ] १. स्थूल, मोटा,
बलिष्ट, पुष्ट । २. प्रसन्न, संतुष्ट, हर्पित। आप्यायनं (नपुं० ) [ आ+प्याय् + ल्युट्] १. तृप्त, संतुष्ट, प्रसन्न । २. पूर्ण, पूरित, भरना, मोटा करना, पुष्ट करना । आप्रच्छनं (नपुं०) [आपृच्छ ल्युट्] १. विसर्जन, विदा करना।
२. स्वागत करना, पूछना, सम्मान करना । आप्रदक्षिणं (नपुं०) १. हंसी उड़ाना, २ . चक्कर लगाना,
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