SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभावना अभिगृहीतः अभिकांक्षिन् (वि०) [अभि+कांक्ष+णिनि] कामना करने वाला, इच्छुक, अभिलाषी। अभिकाम (वि०) [अभिबृद्धः कामो यस्य-अभि+कम+अच्] ०इच्छुक, कामुक, वाञ्छाशील, ०अभिलाषी। अभिक्रमः (पुं०) [अभि क्रम्+घञ्] ०प्रयत्न, ०आरम्भ, ___०व्यवसाय, प्रयान, ०अभियान, ०आक्रमण। अभिक्रमणं (नपुं०) [अभि+क्रम ल्युट्] उपागमन, आरोहण। अभिक्रोशः (पुं०) [अभि क्रुश+घञ्] चिल्लाना, पुकारना, बुलाना, आह्वाहन करना, अपशब्द कहना। अभिक्रोशकः (वि०) [अभि+क्रुश+ण्वुल्] कोशने वाला, कलंक लगाने वाला। अभिख्या (स्त्री०) [अभि+ख्या+अङ्-टाप्] ०कांति, प्रभा, शोभा, आभा, कीर्ति, प्रसिद्धि, यश, ०ख्याति। अभिख्यानं (सक०) [अभि+ख्या ल्युट्] ख्याति, कीर्ति, प्रसिद्धि, यश। १८/३७) जैन दर्शन में 'अभाव' को निषेधकारी न मानकर कचित् रूप में स्वीकार किया है। 'भावान्तरस्वभावरूपी भवत्यभाव इति। (प्रव०वृ० १००) भावान्तर स्वभाव रूप ही अभाव है। जिस धर्मी जो धर्म नहीं रहता उस धर्मी में उस धर्म का अभाव। (जैनेन्द्र सि०१२७) महाकवि ज्ञानसागर ने जयोदय महाकाव्य के छब्बीसवें सर्ग में 'अभाव' की व्याख्या करते हुए कहा है कि-भावैकतायामखिलानुवृत्ति भवेदभावोऽथ कुतः प्रवृत्तिः। (जयो० २६/८७) यतः पटार्थी न घटं प्रयाति हे नाथ! तत्त्वं तदुभयानुपाति।।" (जयो० २६/८७) यदि भाव रूप ही पदार्थ की माना जावे तो सबकी सब पदार्थों में प्रवृत्ति होना चाहिए और सर्वथा अभाव रूप ही पदार्थ माना जाए तो प्रवृत्ति किस कारण होगी? क्योंकि वस्त्र का इच्छुक मनुष्य घट को प्राप्त नहीं होता। इसलिए-पदार्थ भाव और अभाव दोनों रूप हैं। इसके चार भेद किए हैं-१. अन्योन्याभाव, २. अत्यन्ताभाव, ३. प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव। उपर्युक्त चारों अभावों को जिनागम में स्वीकृत किया गया है। अभावना (स्त्री०) अनुचिन्तन का अभाव, अनुप्रेक्षा का अभाव। अभाषित (वि०) अकथित, अनुच्चरित अभासिनी (वि०) १. न ज्ञानवती, २. प्रकाशहीन, प्रभाहीन। (जयो० २७/६) अभि (अव्य०) [न+भा+कि] धातु या शब्दों से पूर्व लगने वाला प्रत्यय। 'अभि' के लगने से की ओर के लिए आदि अर्थ का बोध होता है। 'गम्' धातु से पूर्व 'अभि' लगने से 'अभिगम्' का अर्थ चलना तो है, परन्तु किस ओर यह स्पष्ट हो जाता है। 'जाति' शब्द से पूर्व अभि' लगने से 'अभिजाति' प्रकृति या प्रशंसनीय अर्थ का बोध हो जाता है। अभि-अनुबध् (सक०) गूंथना, गुंफन करना। माला विशालाऽ भ्यनुबद्धयते सा (भक्ति०१३) अभिईप्स (सक०) जानना, समझना। "एवं सुविश्रान्तिम भीप्सुमेताम्।" (वीरो० ५/३४) अभिकंप (अक०) कांपना, हिलना, अभिकर (वि०) [अभि+कन्] अभिव्याप्त, वेष्ठित, लंपट, कामी। द्राक्षादिसार-रसनाद्रसनाभिकनाभिके सरसलेशे। (जयो० ६/४६) अभिकांक्षा (स्त्री०) [अभि+कांक्ष+अ+टाप्] कामना भावना, | ०इच्छा, ०अभिलाषा, लालसा, ०वाञ्छा। अभिगत (वि०) अभिमुख, सन्निकट। अभिगम् (सक०) ०पास जाना, चलना, ०पहुंचना। "फुल्लदानन इतोऽभिजगाम। (जयो० ४/४७) अभिगमनं (नपुं०) [अभिगम् ल्युट] पहुंचना, गमन करना, जाना, पास आना। अभिगम्य (सं० कृ) [अभि+गम्+य] अनुगम्य, उपागम्य, समीप जाकर, निकट पहुंचकर, अभिगम्य बिम्बुच्चै। (जयो० १४/९०) अभिगर्जनं (नपुं०) [अभि+ग ल्युट्] चीत्कार, चिंघाड़ भीषण गर्जना। अभिगामिन् (वि०) [अभि+गम्+णिनि] समीप पहुंचने वाला, संभोग करने वाला, निकट जाने वाला। अभिगुप्तिः (स्त्री०) [अभि+गुप्+क्तिन] संरक्षण, सुरक्षा, निग्रह, निरोध अभिगोप्त (वि०) [अपि+गुप्+तृच्] संरक्षक, निग्रहकर्ता। अभिग्रहः (पुं०) [अभि+ग्रह+अच्] १. अधिकार, प्रभाव, ठगना, धावा। २. जैन सिद्धान्त में 'अभिग्रह एक नियम विशेष माना गया है। 'अनगार' आहारार्थ गमन से पूर्व जो विधि लेता है, वह 'अभिग्रह' है। अभिग्रहणं (नपुं०) [अभि+ग्रह ल्युट्] निश्चित नियम, अभिग्रह। अभिगृहीतः (पुं०) [अभि+गृह ईत्] दूसरे के उपदेश से ग्रहण करना, मिथ्यावचनों पर श्रद्धान करना, यथार्थवस्तु के श्रद्धान से विमुख दृष्टि रखना। For Private and Personal Use Only
SR No.020129
Book TitleBruhad Sanskrit Hindi Shabda Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherNew Bharatiya Book Corporation
Publication Year2006
Total Pages438
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy