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खिन्नता
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गकारः
कद्विधिना' (सुद०७४) 'किन्नथ-किन्नाथकरोमि खिन्नः' | खेदकर (वि०) कष्टप्रद, पीड़ादायी। सम्वेदवत्खेदकरं तदस्तु। (दयो० २/२) खिन्न-उत्कण्ठित (जयो० १२/१३०) | (जयो० १६/२६) 'मालत्याः शाकमुदीक्षेऽहमेव श्रुत्वाऽऽहान्या खिन्न? (जयो० खेदयेत्-खेद उत्पन्न करे, थकान उत्पन्न करे। नैषा वेगं १२/१३०) 'खिन्ना किमिति मेदिनीम्' (जयो० ३/११०) तावकं संविसोढुं शक्ता नैनां खेदयेतीह वोढः। (जयो० 'शफास्तेषामाघातैः खिन्नाः
१७/१२८) 'एनां न खेदय खिन्नां विधेहि' (जयो० वृ० व्यापन्ना किमित्येवमनुनयन्। (जयो० वृ० ३/११०)
१७/१२८) खिन्नता (वि०) व्याकुलता, कष्टजन्यता, पीड़ा युक्त। 'न | खेनोडकः (पं०) आकाश में तारे। खेनाकाशेनोडकानि मनागपि खिन्नतां गतः। (वीरो० ७/३०) 'यदगमं भवतो
___नक्षत्राण्येव। (जयो० १५/४२) भुवि भिन्नतां। तदुपयामि सदैव हि खिन्नताम्। (जयो० ९/४१)
खेयं (नपुं०) [खन्+क्यप्] खाई, परिखा। खिलः (पुं०) मरुभू, मरुधरा, ऊसर भूमि, पथरीली भूमि।
खेल (सक०) हिलाना, क्रीड़ा करना, जाना कांपना। खेलितुं खिलं (नपुं०) मरुधरा, परती भूमि।
(जयो० २०/४५) सलालसा खेलति सा स्म तस्य। (जयो० खिलीक (वि०) रोकना, बाधा डालना।
११/१) खिलीभू (वि०) नष्ट करना, उजाड़ना।
खेल (वि.) [खेल+अच] क्रीडन, क्रीडापूर्ण। शैशवमपि खुङ्गाहः (पुं०) [खुम् इत्यव्यक्तशब्दं कृत्वा गाहते-खुम्+गाह+
शबलं किल खेलैः कृतोचितानुचितम्। (जयो० २३/५७) अच्] कृष्ण-अश्व, टट्टू, ०अडियल घोड़ा।
'खेलैः क्रीडनैः शबलं' (जयो० वृ० २७/५७) खुरः (पुं०) [खुर+क] १. खुर, घोड़े का नख। २.खाट का
खेला (स्त्री०) क्रीडा, खेल। पाया। ३. छुरा, उस्तरा, ४. पलंग का पाया।
खेलिः (स्त्री०) क्रीडा, खेल। खुरणस् (वि०) चिपटी नासिका वाला।
खोटिः (स्त्री०) चतुर स्त्री। सुरपदं (नपुं०) घोड़े के पैर।
खोड (वि०) [खोड्+अच्] विकलांग, पंगू। खुरपातः (पुं०) घोड़ों की टाप। 'खुरपात-विदारिताङ्गणैः' (जयो०१३/२६) 'खुराणां पातेन विदारितम्' (जयो० ७०
खोर (वि०) पंगू, लंगड़ा।
खोलकः (पुं०) पुरवा, सकोरा, छिलका। १३/२६) खुरली (स्त्री०) सैनिक अभ्यास।
खोलि: (पुं०) [खोल्+इन्] तरकस्। खुरलेखा (स्त्री०) खुरों की रेखाएं। (जयो० ७० ३/२७)
ख्या (सक०) कहना, बोलना, घोषणा करना, ज्ञात करना। खुरालकः (पुं०) [खुर इव अलति पर्याप्नोति-खुर+अल्+ण्वुल्]
ख्यात (वि०) १. कथित, प्रतिपादित। (सम्य० १९) २. प्रसिद्ध अयस्क बाण।
(जयो० ३/७३, जयो० १/५१) खुरालिकः (पुं०) [खुराणां आलिभिः कायति प्रकाशते-खुराणि+
ख्यातिः (स्त्री०) प्रसिद्धि, कीर्ति, यश। (समु० १३/३२) कै+क] छुर रखने का स्थान, उस्तरा का स्थान।
ख्यातिगत (वि०) प्रसिद्धियुक्त। खुलोकः (पुं०) चूहा, मूषक। यैः सम्भवित्री बहुधान्यहानिर्यथा
| ख्यापनं (नपुं०) उद्घाटन, घोषणा। खुलोकैरवनाविदानीम्। (समु०१/२०) खुल्ल (वि०) क्षुद्र, छोटा, लघु, अधम, निम्न। खेचरः (पुं०) विद्याधर। (जयो० ६/६)
| गः (पुं०) यह कवर्ग का तृतीय व्यञ्जन है, इसका उच्चारण खेटः (पुं०) [खे अटति-अट्+अच्] १. खेड़ा, गाँव। २. एक
स्थान कण्ठ है। आभ्यन्तर प्रयत्न जिह्वामूल स्पर्श और शस्त्र, गदा।
बाह्य प्रयत्न संवारनाद घोष है। खेटितानः (पुं०) गाकर जगाना।
| ग (वि०) [गै+क] गतिमान होने वाला, ठहरने वाला, जाने खेटिन् (पुं०) [खिट्+णिनि] दुराचारी।
वाला। खेदः (पुं०) कष्ट, दु:ख, पीड़ा, अवसाद , आलस्य, थकान।
गः (पुं०) १. गन्धर्व, २. गणेश, ३. दीर्घ मात्रा। ४. प्रशंसा, 'अनिष्टलाभः खेदः' (नि०साल्टी०६) (सुद० ८७) कस्मै
स्तुति, प्रार्थना। ५. गणधर। मनुष्याय न कोऽपि खेदः। (वीरो० १४/५२)
गकारः (पुं०) ग व्यञ्जन। (जयो० १/४८)
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