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अत्युन्नत
अथात्र
अत्युन्नत (वि०) प्रांशुतर, उत्तम, उच्च। प्रांशुतरमत्युन्नत।
(जयो० वृ० १३/७) अत्यूहः (पुं०) प्रवल चिन्तन, उत्कृष्ट विचार। अत्र (अव्य०) [इदम्+त्रल्-प्रकृतेः अशभावश्च] यहां, इस
स्थान पर इस विषय में। जातु नात्र हितकारि। (जयो० २/६६) जो शास्त्र यहां लौकिक कार्यों में हितकर न हो।
वस्तु पुनरत्र पक्त्रिमा। (जयो० २/६७) अत्र (अव्य०) इस जगह, उस स्थान, इसमें। अनीतिममत्यत्र
जन: सुनीतिः। (सुद० १/२३) अत्र (अव्य०) दृष्टान्त या उदाहरण के लिए भी 'अत्र' का
प्रयोग है। समोदनस्यात्र भवादृशस्य। (जयो० ३/७२) तुम जैसे मोदसम्पन्न महापुरुष के प्रयोग के लिए उपमा देने का
अवसर प्राप्त कर लिया। अत्र (अव्य०) अन्तराल/प्रदेश/भाग में। गङ्गापगासिन्धुनदान्तरत्र
पवित्रमेकं प्रतिभाति तत्र। (सुद० १/१४) गङ्गा और सिन्धु
नदियों के अन्तराल में अवस्थित हैं। अत्रंतरे (क्रि०वि०) इसी बीच में। अत्र च (अव्य०) और यहां पर। सम्पादयत्यत्र च कौतुकं नः।
(सुद० २/२१) अत्रत्य (वि०) [आत्रभव-अत्र+त्यप्] इस स्थान का, यहां उत्पन्न। अत्रप (वि०) निर्लज्ज, अविनीत, अशिष्ट। अत्रिः (पुं०) ऋषि। अथ (अव्यः) [अर्थड-पृषो० रलोप:] प्रयोजनभूत, इस
तरह, इस प्रकार, अब। सुखलताऽयमथ च पुनः। (सुद०
पृ०८४ जयो० १/४) अथ (अव्य०) शुभसंवादे अथेत्यव्ययं। (जयो० वृ० १/३)
प्रकरण पुरा प्राचीनकाले पुराणेषु। (जयो० वृ० १/२) अथाभवत्तद्दिशि सम्मुखीन। (जयो० १/७९) अथ प्रकरणे सम्यगुत्थानं सूत्थानम्। और अर्थ में-वाबिन्दुरेति खलु शुक्तिषु मौक्तित्वं लोहोऽथा (सुद० ४/३०) बिन्दु सीप के भीतर मोती और पारस पाषाण का योग पाकर लोहा भी सोना बन जाता है। पश्चात् अर्थ में-अथ प्रभावे कृतमङ्गला सा। (सुद० २/१२०) मानो कि के लिएमिथोऽथ तत्प्रेमसमिच्छकेषु। (सुद० २/२६) उक्तिविशेषे-जहावहो मञ्जुदृशोऽथ तावत्। (वीरो० ६/६) नाभि ने मानो अपने गम्भीरपने को छोड़ दिया हो। अथेत्युक्तिविशेषे। (वीरो० वृ०६/६)
शभ-सम्भाषणे-अथ भो भव्या भवेन्मुदे। (जयो० २२/१) सर्वर्तुमयामोदथायात्। (जयो० वृ० २२/२) क्रमार्थे-इतीव पादाग्रमितोऽथ यस्या। (वीरो० ३/२०) अथ शब्द: क्रमेणावयवर्णनार्थमिति। (वीरो० ७०३/२०) शुभसंवाद-करणे-रचितानि पदानि रामयथातदातिथ्यकृतेऽभिरामया। इस पर में अथेति शुभसंवाद-करणे। तथा (२/९४), प्रकरणारम्भे. (जयो० वृ० १०/६६), (जयो० ११/७) अनन्तरे सुद० (जयो० १०/५८) इत्यादि अथ अव्यय के कई अर्थ हैं। यह प्रश्न पूछने, संवाद करने आदि में भी प्रयुक्त होता है। 'अथाथो च शुभे प्रश्ने सकल्यारम्भ-संशये' इति
विश्वलोचनः। (जयो०८ वर्ग) अथ किल (अव्य०) इसके अनन्तर निश्चय ही। इसके बाद,
निश्चय से। (भक्ति सं० १८) अथ किम् (अव्य०) और क्या? ठीक ऐसा ही। अथ च (अव्य०) और भी, फिर भी. तथापि। (सुद० वृ०८४) अथर्वन् (पुं०) [अथ+ऋ+वनिप्] उपासक, पुरोहित। प्रचराथर्वण
तद्धि कार्मणम्। (जयो० २७/३१) अथर्वण-काव्यं (नपुं०) ऋग्वेद, वैदिक ग्रन्थ, वेदग्रन्थ। (दयो०
२८) अथर्वणिः (पुं०) अथर्ववेद में निपुण। अथर्वाणः (पुं०) [अथर्वन्+अच्] अथर्ववेद की पद्धति। अथर्ववेदः (पुं०) अथर्ववेद, वेद ग्रन्थ। (दयो० २२) अथवा (अव्य) या, और, अधिकतर, क्यों, कदाचित्। धर्मपात्रम
घमर्षकर्मणे कार्यपात्रमथवाऽत्रशर्मणे। (जयो० २/९४) यहां 'अथवा' शब्द का प्रयोग और अर्थ में हुआ है। अथवेत्युक्त्यन्तरे-मानो कि-समुप भान्ति लवा अथवागसः। (जयो० १/१२) अथवा/या (जयो० वृ० १/२) वर्णनान्तरार्थम्-समङ्किते यद्वरणेऽथवा भी:। (वीरो० २/२९) पादपूरणार्थे-आनं नारङ्ग पनसं वा फलमथवा रम्भायाः।
(सुद० पृ० २/२) अथवा तु (अव्य०) या तो, फिर भी, तो भी। अथवा तु न
पक्षपातः शमनस्य जातु। (सुद० पृ० १२१) अथात्र (अव्य०) ०इसके अनन्तर ०यहां, इसके पश्चात्
यहां/इस समय में। अथात्र नाम्ना विमलस्यं वाहन। (सुद०
पृ० ११४) अथात्र (अव्य०) तदनन्तर, इसके पश्चात्। अथात्र विद्या
विशदा नियोगिनी:। (जयो० २२४/१)
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