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अतिथिः
अतिप्रश्न:
अतिथि: (पुं०) पति, जयोदय में अतिथि/पति अर्थ भी किया
है। जिसे प्राघूर्णिक भी कहा है। शातवती होत्थितासनतः। परिधानमतिथिरागम्। (जयो० १५/१००) पति को आया देखकर पत्नी आसन से उठी और अतिथि/पति राग को व्यक्त किया। तावदेवातिथो प्राघूर्णिके रागः प्रेमभाव। (जयो०
वृ० १३०) अतिथिदानं (नपुं०) अतिथि संविभाग नाम व्रत, ० श्रावक का
एक व्रत। अतिथि-पूजनं (नपुं०) अतिथि संविभाग नाम, संयत के लिए
उत्तम आहार। अतिथिरागः (पुं०) प्राघूर्णिक राग, पतिराग। (जयो० १५/१००) अतिथिसत्करणं (नपुं०) अतिथि सत्कार। अतिथिसत्करणं
चरणं व्रते गुणसमुद्धरणं जगतः कृते। भवावदारणं च महामते निखिलदेवमयोऽतिथिरूच्यते।। (दयो० वृ०५८) अतिथि सत्कार सदाचार है, इससे जगत् के गुण प्रकट होते हैं, और यह भगवन् स्मृति का उचित माध्यम है,
क्योंकि अतिथि पूर्णरूप से देवतुल्य है। अतिसत्कार: (पुं०) अतिथि पूजन, अभ्यागत अर्चन। (जयो०
१२/१४१) अतिथिसत्कृति (वि०) अतिथि सत्कार करने वाली। (सुद०
२/६, जयो० वृ० १२/१४१) अतिदानं (नपुं०) [अति+दा+ल्युट्] उदारता, अधिक दान। अतिदुर्लभः (पुं०) अत्यन्त दुर्लभ, कनिष्ठता से प्राप्त। (सुद० __ १२८) मर्त्यभावो अतिदुर्लभः। (सुद० १२८) अतिदेशः (पुं०) [अति+दिश्+घञ्] हस्तान्तरण, समर्पण,
(वीरो० ३/४) 'अतिदेशः सजातीयपदार्थेभ्यां विशिष्टता'
इति सूक्तेः । (वीरो० ३/४) अतिदेशालङ्कारः (पुं०) अलङ्कार नाम। (वीरो० ३/४) जिसमें ११ वर्ण हों। ऽऽ। 55। ।। ६५ भूयावहो वीतकलङ्कलेशः, भव्याब्जवृन्दस्य पुनर्मुदे सः। राजा द्वितीयोऽथ लसत्कलाढ्य,
इतीव चंद्रोऽपि बभौ भयाढ्यः॥ अतिद्वय (वि०) [द्वयमतिक्रान्तः], अद्वितीय, अनुपम, अतिशय
युक्त। दोनों से बड़ा हुआ। अतिधन्वन् (पुं०) [अत्युत्कृष्टं धनुर्यस्य] योद्धा, धनुर्धर। अतिधार्मिक (वि०) बहुत धर्म प्रवृत्ति वाला, पुण्यशील वाला।
(वीरो० १५/३९)
अतिधार्मिका (वि०) उत्तमधर्म वाली। (वीरो० १५/३९) अतिधीरः (पुं०) अधिक गम्भीर। (सुद० २/३९) अतिनय (वि०) अतिक्रान्तनीति, नीति त्यागने वाला, नीति
रहित। विनयो नयवत्येवाऽतिनये तु गुरावपि। प्रमापणं जनः पश्येन्नीतिरेव गुरुः सताम्।। (जयो० ७/४७) नयम् अतिक्रान्तोऽतिनयस्तस्मिन्नतिनये अतिक्रान्तनीतौ त। (जयो०
वृ०७/४७) अतिनिगूढ पद (वि०) अधिक छिपी हुई अवस्था वाले।
(समु०७/८) अतिनिद्र (वि०) [निद्रामतिक्रान्त:] अनिन्द्रालु, कम निद्रा
वाला, निन्द्रा रहित। अतिनिन्ध (वि०) अति निन्दनीय (वीरो० १७/२) अतिनुत्ति (स्त्री) प्रगाढभक्ति (वीरो० २२/४०) अतिपञ्च (वि०) [पञ्चवर्षमतिक्रान्तः] पांच वर्ष से अधिक। अतिपत्तिः (स्त्री०) [अति+पत्+क्तिन्] असफलता, सीमापार। अतिपत्रः (पुं०) [अतिरिक्तं बृहत् पत्रम्] सागौन वृक्षा अतिपथिन् (पुं०) [पन्थानमतिक्रान्तः] सन्मार्ग, अच्छा पथ। अतिपर (वि.) [अतिक्रान्तः परान्] अपराजित, शत्रु को __ परास्त करने वाला। अतिपरिचयः (पुं०) अधिक पहचान, विशिष्ट परिचय। अतिपानः (पुं०) [अति+पत्+घञ्] ०अतिक्रमण, उपेक्षा,
भूल, विस्मरण, विरोध, दुष्प्रयोग, वैपरीत्य। अतिपाति (वि०) अधिक पाने वाले। (सुद० ३/१८) अतिपातकः (पुं०) [अतिपात-स्वार्थे कन्] जघन्य पाप,
व्यभिचार। अतिपातिन् (वि०) [अति+पत्+णिच्+णिनि] शीघ्रतर, अग्रगामी,
गतिवान। अतिपात्य (वि०) [अति+पत्+णिच् यत्] विलम्बित, स्थगित। अतिपीतः (पुं०) अधिक पुष्ट। (जयो० १२/१२) अतिपेशल (स्त्री०) अति पुष्ट (वीरो० २१/४) ०बलिष्ट,
शक्ति सम्पन्न। अतिप्रखरः (पुं०) तेज, दीप्त। (जयो० १/२४) अतिप्रबन्धः (पुं०) [अतिशयितः प्रबन्धः] विशिष्ट रचना,
श्रेष्ठ काव्य। अतिप्रबन्ध (वि०) बन्धयुक्त, अत्यन्त समीप्य। अतिप्रगे (अव्य) [अति+प्र+गै+के] प्रात:काल में, प्रभात
बेला में। अतिप्रश्नः (पुं०) [अति-प्रच्छ+ नङ्] विशिष्ट प्रश्न, उचित
निवेदन।
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