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अधर
अधिकारः
अधर (विपुं०) नीच प्रकृति, निम्नभाव। नीचप्रकृतिरपि। (जयो०
वृ० १/७२) अधर (वि०) ऊपर, ऊपर की ओर। अधरमिन्द्रपुरं विवरं।
(सुद० १/३७) इन्द्र का नगर स्वर्ग तो अधर है। अधर (वि०) बीचों बीच, मध्य में। स्वतोऽधरं पूर्णमिदं सुयोगैः।
(सुद० १/३०) अधरदलं (नपुं०) रदच्छद, (जयो० २/१५५) । अधरशोणि (वि०) ०दन्तच्छदलोहित, ०अधरोष्ठ की लालिमा,
राग युक्त ओष्ठ। (जयो० १८/१०२) दन्तावलीमधर
शोणिमसंभृदङ्काम्। अधरोष्ठ की लालिमा से चिह्नित दन्तपंक्ति। अधरबिम्बं (नपुं०) ओष्ठमंडल। (जयो० ३/५२) अधरभाग।
बहुस्य वृत्तितावाऽधरबिम्बस्य दृश्ताम्। साध्व्या यतोऽधरं
बिम्बनामकं च फलं परम्।। अधरलता (स्त्री०) ओष्ठतति, ओष्ठपंक्ति। (जयो० ३/६०) अधरीकृ (अक०) [अधर+च्चि कृ] आगे बढ़ जाना, पराजित
करना। (जयो० २२/६७) अधरीकृत (वि०) अधरौष्ठ परिणत, निरादर भाव। (जयो० २२/६७) अधरीण (वि०) [अधर+ख] तिरस्कृत, निंदित। अधरेद्य (अव्य०) [अधर+एद्युस्] पहले दिन, परसों। अधरोष्ठः (पुं०) दन्तवास, दन्तच्छद। अधर्मः (पुं) तामसभाव, ०बुरा, अन्याय, धृष्टता। (सुद०
४/१२) अधर्मः (पुं०) अधर्मद्रव्य, षद्रव्यों में चतुर्थ द्रव्य। यह जीव
और पुद्गलों के ठहरने में सहायक निमित्त कारण है। यह एक है, और असंख्यात प्रदेशी तथा सम्पूर्ण लोकाकाश
में फैला है (सम्य० १९) (वीरो० १९/३६७) (सम०२२) अधर्मद्रव्यम् (नपुं०) अधर्मद्रव्य (वीरो० १९/३७) अधस्तन (वि०) [अधस्+ट्युः, तुट् च] निचला, निम्नकर्म,
नीचकार्य। (जयो० २४/४७) अधस्तन कृष्टिः (स्त्री०) निम्नकर्म। अधस्तनद्रव्यं (नपुं०) निम्न द्रव्य। अधस्तनद्वीपः (पुं०) अधो द्वीप। अधार (वि०) आधार भूत। अधारिन् (वि०) धारण नहीं करने योग्य। (सुद० २/३) अधि (वि०) [आ+धा+कि] ऊर्ध्व, ऊपर। अधि (अव्य०) मुख्य, प्रधान, प्रमुख। अधि+उष् (अक्) बैठना, स्थित होना। अध्युषित नृपतिमलिना
नानानुलिङ्गः। (जयो० ६/१००) अध्युषिता उपविष्टा। (जयो० वृ० ६/१००)
| अधि एत् (सक०) पाना, प्राप्त करना। शाश्वत राज्यमध्येतुं
प्रयते पूर्णरूपतः। (वीरो० ८/४५) अधिक (वि.) [अधि+क] ०बहुत, ०अतिरिक्त, बृहत्तर,
अधिक से अधिक। (सम्य० १००/६६) अधिक (वि०) हेतूदाहरणाधिकमधिकम्। हेतु और उदाहरण
के अधिक होने से अधिक नामक निग्रहस्थान है। अधिकर्तृ (वि०) अधिकारिणी। (जयो० ३/७३) अधिकरणं (नपुं०) [अधि+कृ+ल्युट्) ०सम्बंध, उल्लेख,
अन्वय, कारक चिह्न। तस्याधिकरणमधिकारस्तम्मात्। (जयो० वृ० १/४) अधिकरणं (नपुं०) दार्शनिकशैली, जिस धर्मी में जो धर्म
रहता है, उस धर्मी को उस धर्म का अधिकरण कहते हैं। 'घटत्व' धर्म का अधिकरण 'घट' है। यह अधिकरण, जीवाजीव रूप होता है। जीवाधिकरण समरम्भ, समारम्भ और आरम्भ रूप है, यह कृत, कारित और अनुमत रूप भी है। अजीवाधिकरण निर्वर्तना, निक्षेप, संयोग और विसर्ग रूप है। (सम्य० १५) अधिकरणिकः (पुं०) [अधिकरण+ठन्] न्यायधीश,
दण्डाधिकारी। अधिकर्मन् (नपुं०) उच्चकार्य। अधिकर्मिकः (पुं०) [अधि+कर्मन्+ठ] अध्यवेक्षक, कर
अधीक्षक अधिका (वि०) सुशोभित शोभनीया, (जयो० २०/४७) सा
रसाधिका प्रभूतजलवती किंवा सारपक्षिभिरधिका शोभनीया।
(जयो० वृ० २०/४७) अधिकाधिक (वि०) उत्तरोत्तर, अधिक से अधिक, बृहत्तर।
क्षणसादधिकाधिकं जजम्भे। (जयो० १२/६९) अधिकाम (वि०) [अधिक: कामो यस्य] अधिक अभिलाषी,
कामातुर, कर्त्तव्येछुक। अधिकारः (पुं०) [अधिक+कृ+घञ्] अनुग्रह, अधीक्षण,
निरीक्षक, नियो० ७ (जयो० १/४) तस्याधिकरणमधिकारस्तस्मात् कृत्वा, आरात् समी पादेव कथं न पुनातु पवित्रयत्वेव। (जयो० वृ० १/४) नवरसों के विपुल अनुग्रह द्वारा शीघ्र ही क्यों न पवित्र करेगी अर्थात् अवश्य करेगी। "नियोगादधिकारादेव भुवः पृथिव्याः स्त्रियाः करं शुक्लं जग्राह।
(जयो० १/२१) यत्नः कर्त्तव्योऽत्यधिकारे। (सुद० ७/४) अधिकारः (पुं०) प्रभुसत्ता, शासन। अस्या धराया भवतोऽधिकार:
(वीरो० १७/१) स्वामित्व, प्रकरण, अनुच्छेद, अनुभाग।
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