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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कामोद्रेकः २८२ कायस्थितिः सिद्धः सुतरामुपायस्तथाऽस्य कामोदय-कारणाय' (सुद० शरीरगत दु:ख की परिणति, प्रमादजनित सामायिक की १०१) परिणति। 'दुष्टप्रणिधानं सावद्ये प्रवर्तनम्' तत्र हस्तकामोद्रेकः (पुं०) कामवेग। (जयो० वृ० १६/५) पादादीनामनिश्चयभूतत्वावस्थापनं वायदुष्प्रणिधानम्' कामोल्लसित (वि.) काम से प्रमुदित, वासनाओं के हर्ष को (सा०ध०टी० ५/३३) प्राप्त होन वाला। (जयो० ४/६३) कायपरीतः (पुं०) प्रत्येक शरीर वाला जीव। काम्पिल्लः (पुं०) एक वृक्ष विशेष। कायप्रवीचारः (पुं०) शरीर से मैथुन सेवन। 'कायेन प्रवीचारो काम्बलः (पु०) कम्बल/ऊनी वस्त्र से आच्छादित। मैथुनव्यवहारः' काम्बविकः (पुं०) सीप का व्यापारी, शंखाभूषण का व्यापारी। कायबलः (पुं०) असाधारण शरीर बल, शरीर ऋद्धि विशेष। काम्बोजः (पुं०) [कम्बोज+अण] कम्बोज देश का रहने । कायबलिन् (वि०) कायबली, देह से बलिष्ठ, तपोपयोग से वाला। प्रवृत्त क्रिया। काम्य (वि०) [कम्+णिड्-यत्] १. इच्छित, वाञ्छित, वाञ्छनीय। कायबलप्राणः (पुं०) शरीरचेष्टागत शक्ति। 'देहोदये शरीर २. सुन्दर, मनोहर, रमणीय, सौम्य। नामकर्मोदये कामचेष्टा जननशक्तिरूपः कायबल प्राणः। काम्रता (वि०) सरसता। (जयो० व१२/१२७) (गो०जी०टी० १३१) काम्ल (वि०) ईषद्, अम्ल, कुछ खट्टा। कायमानं (नपुं०) शरीर का प्रमाण। कायः (पुं०) शरीर, देह-चीयतेऽस्मिन् अस्थ्यादिकमिति कायः काय-मालिन्य (वि०) देहगतमलिनता। चीयन्ते अस्मिन् जीवा इति व्युत्पत्तेर्वा काय:।' (धव० कायमोहिन् (वि०) शरीर के प्रति मोह रखने वाला। ७/६) जिससे अविनाभावी त्रस-स्थावर का उदय होता है। काय-योगः (पुं०) शरीर सम्बन्धी योग, योग के तीन भेदों में 'औदारिक-शरीरनामकर्मोदयवशात् पुद्गलैश्चीयते इति कायः' से एक योग काय योग है, जिसमें शरीर का स्थिर करने कायकल्पकारिन् (पुं०) रसायन का आश्रय, भैषजाश्रय। के लिए प्रयत्न किया जाता है। (वीरो० वृ०१/२२) कायात्मप्रदेशपरिणाम। कायक्लेश: (पुं०) १. शरीरगत पीड़ा, देहजन्य दु:ख। २. वीर्यपरिणति विशेष। कायक्लेश एक स्थिर आसन विशेष भी है, जिसमें काय जीवप्रदेश परिस्पन्दन। 'सप्तानां कायानां सामान्यं काय:, के अवग्रह से आगमानुसार शरीर को स्थिर करने के लिए तेन जनितेन वीर्येण जीवप्रदेशपरिस्पन्दन लक्षणेन योगः विविध आसनों का प्रयोग किया जाता है। 'कायक्लेश: काययोगः' (धव० १/३०८) स्थान मौनातपनादिरनेकधा' (त० वा० ९/१९) कायक्लेश कायवधः (पुं०) पृथ्वी आदिक का वध, एकेन्द्रिय स्थावर तप विशेष है--अकायक्लेशकृतत्वेन कायक्लेशोपयोगवान्।' जीव को पीड़ा। (समु० ९/१३) अपने पूर्वकृत पापकर्म को नष्ट करने के | कायविनयः (पुं०) नम्रतापूर्ण व्यवहार, शरीर को नम्रीभूत लिए जो देह सम्बंधी तप किया जाता है। 'कायक्लेशं बनाना। शरीरस्य कष्टं श्रयन्नपि कायक्लेशो न सम्भूतो' कायव्युत्सर्गः (पुं०) शरीर के ममत्व का त्याग, सर्वत्र संवृताचार। कायक्लेशनामकं तपश्च कृतवानित्यर्थ, (जयो० २८/१२) कायशुद्धिः (स्त्री०) सरलता पूर्ण काय, शरीर के प्रति यत्नपूर्ण कायगुप्तिः (स्त्री०) शरीर की प्रवृत्ति को नियमित रखना। प्रवृत्ति। अहेरिव गृहस्थस्थ, कौटिल्यमधिगच्छतः स्यान्मु प्राणिपीडाकारिण्याः कायक्रियाया निवृत्तिः कायगुप्तिः। नेगरुडस्येव, पार्वे सरलता तनौ।। (हित०सं०५१) संस्कार(भ०अ०टी० ११५) हिंसादि णियत्ती वा सररीगुत्ती हवदि संहति। एसा (मूला० ५/१३६) कायसंयमः (पुं०) शारीरिक संयम, इन्द्रिय सम्बन्धी संयम। काय-चिकित्सा (स्त्री०) शरीर उपचार, देहगत व्याधियों का कायस्थ (वि०) १. शरीरस्थ, शरीर की ओर अग्रसर। २. जाति विशेष। उपशमन, रोगप्रतिक्रिया। 'कायस्य ज्वरादि-रोगग्रस्तशरीरस्य कायस्थित (वि०) शारीरिक क्रिया में स्थित। चिकित्सा' (जैन०ल० ३३८) कायस्थितिः (स्त्री०) जीवत्व रूप पर्याय, एक काय को न कायदुःप्रणिधानं (नपुं०) पापजनित प्रयोग, अन्यथा परिणति, छोड़कर उसके रहने तक नाना भवों का ग्रहण करना। For Private and Personal Use Only
SR No.020129
Book TitleBruhad Sanskrit Hindi Shabda Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherNew Bharatiya Book Corporation
Publication Year2006
Total Pages438
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary
File Size14 MB
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