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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ओतुकः २४० औक्थिक्यं ओतुकः (पुं०) बिलाव, बिल्ली। ओदनः (नपुं०) [उन्द्+युच्] भक्त, भात, भोजन। (समु० ८/१९) (जयो० १२/१११) 'समोदनस्यात्र भवादृशस्य' (जयो० ३/६२) 'ओदनस्य भक्तस्य वा प्रयुक्तये' (जयो० वृ० ३/६२) ओदनाधिकारः (पुं०) भोजन का अधिकार 'सकलव्यञ्जन मोदनाधिकारम्' (जयो० १२/११५) ओदित (वि०) कथित, निरूपित, भाषित। 'मृदुपल्यङ्क इवाहतोदिते' (सुद्० ३/२२) ओदिय (वि.) उदयगत, सम्मुख स्थित, सभागत। (सुद० २/४३) 'बलित्रयस्यापि तदोदियाय' (सुद० २/४३) ओपत्तिक (वि०) उत्पत्ति मूलक। ओपनिषत् (वि०) उपनिषद काल सम्बंधी। (वीरो० १८/५६) ओपनिषत्-समर्थ (वि०) उपनिषत्काल सम्बन्धी रचना में समर्थ। (वीरो० १८/५६) ओम् (अव्य०) १. कल्याण सूचक अक्षर। २. पञ्च परमेष्ठि-वाचक मंगलपद। इसका आदि अक्षर 'अ',अशरीरी वाचक है, जिसे सिद्ध कहते हैं। अ अरहंत परमेष्टि-वाचक आ-आचार्य मुनि। 'उ' उपाध्याय और अन्तिम 'म्' साधु परमेष्ठि वाचक है। अ+अ+आ= आ। उ ओम्-ओम्' वैदिक संस्कृति में 'अ' ब्रह्मवाचक, 'उ' विष्णुवाचक और 'म्' महेश-वाचक है। 'ऊँ' यह बीजाक्षर भी परमेष्ठि वाचक है। 'प्रकृष्टो नवः प्रणवः' की व्युत्पत्ति से भी इसकी श्रेष्ठता प्रतीत होती है। प्रणवो नाम मंगलशब्द: संस्तुत: स्तुतिपथम्' (जयो० वृ० १९/५०) 'ओं ह्रीं णमो जिणाणं' (जयो० १९/५८) 'ओं णमो दसपुव्वीणं' (जयो० १९/५७) ओम्-ओं 'शिव/कल्याणवाचक/मंगल वाचक है। शिवमों शिवमों नमोऽर्हमद्य शिवमों ह्रीमृषिवन्दितं तु सद्यः। वशिवं शिवरैः श्रितं हितं च वृषिबोध्यञ्च सुधाशिवोध्यमञ्चत्।। 'रुचिरोमित्युदपादि किन्न तेन। (जयो० १२/४१) यह एक पवित्र ध्वनि है, जो ऋषियों के द्वारा उच्चरणीय है। अरिहंता असरीरा आयरिया तह उवज्झाया मुणिणा। पढमक्खरणिप्पणो ॐकारो पंचपरमेट्ठी। (द्र०सं०४९) (जैनेन्द्र सि०वृ० ४७०) ओल (वि०) [आ उन्द्+क] गीला, आर्द्र, ओला, हिम, तुषार। ओलिकः (पुं०) मध्य-आर्य खण्ड का देश। ओल्लड् (सक०) फेंकना, उछालना। ओल्ल (वि०) गीला, आर्द्र, ओला, हिम, तुषार। ओवेल्लिम (नपुं०) वेष्टन ओषः (पुं०) [उष्+घञ्] संताप, जलन। ओषणः (पुं०) [उष्+ल्युट] तीखापन, तिक्त, तीक्ष्ण। ओषधः (पुं०) दबा, रोगनिदान का पदार्था । ओषधदानं (नपुं०) चार दानों में एक दान ओषधदान, चिकित्सा करना, रोग निदान। रोगिभ्यो भैषज देयं रोगो देहविनाशकृत्। (उपा०६५) ओषधिपतिः (पुं०) चन्द्र। आषधीनां पतिश्चन्द्रः 'दोषं किलौषधिपली प्रतियातिदूरे।' (जयो० १८/१८) ओषधिप्राप्त (वि०) ओषधि ऋद्धि से युक्त, शरीर के सुगन्धित ___ अवयवों से युक्त। ओषधिवजः (पुं०) ओषधि समूह। (जयो० २४/२९) ओषधिसमूहः (पुं०) ओषधि पुञ्ज, ओषधि की व्यापकता। ओहाक् -त्याग दिया ओहाक् त्यागे लिट्। । ओष्ठः (पुं०) [उष्धन] होठ, अधर। (जयो० ५/८४) (जयो० ३/५२) * रदनवास। ओष्ठज (वि०) ओष्ठवान् वाले। ओष्ठजाहः (पुं०) ओठ की जड़। ओष्ठ-पल्लव: (पुं०) ओठ/होंठ रूप, पल्लव रूप ओंठ। ओष्ठपुट (नपुं०) ओठ/होंठ भाग, दोनों अधरों के खोलने पर बना गर्त रूप स्थान। ओष्ठमण्डलं (नपुं०) अधरबिम्ब। (जयो० ० ३/१२) ओष्ठ्य (वि०) [ओष्ठ+यत्] होंठों पर रहने वाली ध्वनि, उच्चरणीय शब्द। ओष्ठ्यगत् (वि०) अधर गत ध्वनि। ओष्ण (वि०) [ईषद्+उष्ण] अल्प गरम, कुनकुना। औ औ -संस्कृत वर्णमाला का चौदहवां स्वर। इसका उच्चारण स्थान औष्ठ है। अ+ओ-औ। औ (अव्य०) यह अव्यय आमन्त्रण या सम्बोधन अर्थ में होता है, संकल्प तथा शपथ अर्थ के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता है। औंड्रः (पुं०) भरत क्षेत्र आर्यखण्ड का एकदेश। औकः (पुं०) स्थान, निवास, आश्रय। (जयो० २७/२१) औक्थिक्यं (नपुं०) [उक्थ ठक्ष्य ञ्] उक्थ का पाठ, सामवेद का पाठ। For Private and Personal Use Only
SR No.020129
Book TitleBruhad Sanskrit Hindi Shabda Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherNew Bharatiya Book Corporation
Publication Year2006
Total Pages438
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary
File Size14 MB
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