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अनुप्राप्त
अनुभावः
अनुप्राप्त (वि०) बार-बार अंगीकृत। (सम्य० १४०) अनुप्रासः (पुं०) अनुप्रास नामक अलङ्गकार। अनुप्रासालङ्कार अनुप्रासोऽलङ्कार अलङ्कार, एक समान ध्वनियों या वर्णों की
पुनरावृत्ति। वर्णसाम्यमनुप्रासः। (काव्यप्रकाश) तुल्यश्रुत्यक्षरावृत्तिरनुप्रासः स्फुरदगुणे: (वाग्भट्टालंकार ४/१७) समान सुनाई देने वाले अक्षरों की बार-बार आवृत्ति और माधुर्यादि गुणों की स्फुरणा जहां होती है। (जयो० ३/१११, ५/६, ५/२६, ५/३३ ८/६५, १४/२९, २२/७०, २३/६७ न भाविनो दिवसा इव शाश्वता मितिरर्निशयोरिह सम्मता। स्फुटमनाथ इतो नरनाथतां प्रमुदितो सदितं पुनरीक्ष्यपताम्।। (जयो० २५/६) विरम विरमतः सुरमेऽमुकतः।
सुकतत्त्वमत्र न हि जातु। (जयो० २४/१४०) अनुप्रासोपमा (स्त्री०) अनुप्रासोपमालङ्कारः। (जयो० ३/३६)
विचक्षणेक्षणाक्षुण्णं वृत्तमेतद्गतं मतम्। क्षणदं क्षणमाध्यानात्
कर्णालङ्करणं कुरु।। (जयो० ३/३८) अनुप्रेक्षा (स्त्री०) ०भावना, ०बार-बार चिन्तन, ०अनुचिन्तन।
(जयो० १८१८) स्वभावानुचिन्तनम्, तत्त्वानुचिन्तनम्। अनु- पुनः पुनः प्रेक्षणं-चिन्तनं अनुप्रेक्षा। अनुप्रेक्षा ग्रन्थार्थ योरेव मनसाऽभ्यासः। अभ्यास स्वाध्याय, तत्त्वार्थ चिन्तन
आदि का नाम भी अनुप्रेक्षा है। अनुप्रेक्षार्थ (वि०) प्रेक्षा/चिन्तनार्थ। (सम्य० ११६) अनुबद्ध (वि०) [अनु+बन्ध्+क्त] संलग्न, तत्पर, संबद्व, बंधा
हुआ, सदान्ततरात्मन्यनुवद्ध शोकः (समु० १/३३) एवं जिनाज्ञामनुबद्धबुद्धे या॑पायतः पूर्णतया ऽऽप्तशुद्धः। (भक्ति
सं० ९.२८) अनुबन्धः (पुं०) [अनु+बन्ध्+घञ्] बन्धन, गठबन्धन, सम्बन्ध,
प्रणय। आसक्ति, शृंखला, श्रेणी, नियोजन, प्रयोजन, उपक्रम,
बाधा। (जयो० १२/१०) अनुबन्धः कार्यविषयः प्रवाहपीणमः। अनुबन्धन (नपुं०) प्रत्यनुवर्तन, सम्बन्ध, नियोजन, उपक्रम,
गठबन्धन। (जयो० २५/७०) अनयनो नितरां निजगन्धवे व्रजति हा विपदामनुबन्धने। (जयो० २५/७०)
विपत्तीनामनुबन्धने प्रत्यनुवर्तने (२५/७०) अनुबन्धमूल्यं (नपुं०) प्रणयबन्धन का परिणाम, अनुबन्धः
प्रणयस्तर-परिणामश्च मूल्यं यस्पाः सा ताम्। (जयो० ११/१) अनुबन्धवशग (वि०) परमप्रेमवश, प्रणय-बन्धनवश, अनुराग
युक्त, प्रणयवशीकृत। (जयो० १२/१०)
अनुबन्धिन् (वि०) [अनुबन्ध+गिनि] सम्बद्ध, सलम, संयुक्त,
क्रमबद्ध, जोड़ने वाला। [स्वमिति सम्वदतोऽङ्गमिदं] गलन्तदनुबन्धि
च बन्धुतया दलम्। (समु० ७/१८) (सम्य १२२) अनुबन्धय (वि०) [अनु+ बन्ध+व्यन्] प्रधान, प्रमुख। अनुवलं पीछे की सेना। अनुबाहुः (पुं०) निजबाहु, अपना हुआ। वागाह नदनुबाहु
निजबाहु (जयो० ६/२७) अनुबिम्बित (वि०) प्रतिफलित, प्रतिबिम्बित। हृदये जयस्य
विमले। प्रतिष्ठिता चानुबिम्बिता। (जयो० ६/१२६) अनुबोध (वि०) [अनु+बुध+णिच्+घञ्] अनुचिन्तन, अनुशीलन,
पुनर्विचार, प्रत्यास्मरण। अनुबोधनं (नपुं०) [अनु+बुध+ ल्युट्] पुनमरण, प्रत्यास्मरण,
अनुचिन्तन। अनुभवः (पुं०) [अनु+भू+अप्] प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अवलोकन,
समझ, ज्ञान। वस्तु के यथार्थस्वरूप की उपलब्धि, पर पदार्थों में विरक्ति, आत्मस्वरूप में तल्लीनता और हेय-उपादेय का विवेक। सिद्धान्त की दृष्टि से इस शब्द कर अर्थ इस प्रकार किया जाता है। "यो विपाको सो अनुभव इत्युच्यते" जो कर्म विपाक है, वह अनुभव है। विप्पकोऽनुभवः। (स०सि०८/३) रस विशेष भी अनुभव है। अनुभव को अनुभाग भी कहते हैं। कर्मपुद्गल
सामर्थ्य-विशेषोऽनुभवो मतः। (ह०पु०) ५८/२१२) अनुभवनीय (वि०) भोग्य, अनुभव करने योग्य। (जयो० वृ०
४/३०) अनुभवित्व (वि०) अनुभावित, विचारशीलत्व। (सुद०४/३)
(जयो० वृ० २/७४) अनुभाविन् देखो ऊपर। अनुभागः (पुं०) ०अनुभव, ज्ञान, प्रत्यक्ष, ०अवलोकन,
उपलब्धि, तल्लीनता। ०शुभाशुभ रस का प्रादुर्भाव। (सम्य० ४६) अनुभाग: कर्मणां रसविशेषः। (मूला०वृ०
अनुभाग-बन्धः (पुं०) शुभ-अशुभ कर्मों के परिणाम। अनुभाग-मोक्षः (पुं०) निजीर्ण अनुभाग, अपकर्षित, उत्कर्षित,
संक्रामित या अधः स्थिति गलन के द्वारा निजीर्ण अनुभाव
का नाम अनुभाग मोक्ष है। अनुभावय् (अक०) अनुभव करना, प्रकट करना। [अनु+भू+ णिच्] अन्तस्तले स्वामनुभावयन्तुस्तुरि (वीरो० १४/१४)
सदैवाऽनुभावन्त्यो जननीमुदे वा। (वीरो० ५/४१) अनुभावः (पुं०) [अनु+भू+णिच्+घञ्] ०प्रभाव, मर्यादा,
०बल, ०अधिकार। अन्तस्थ सम्यग्वलिनोऽनुभावः। (सुद०
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