________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अत्
अतिकृच्छ्र
अत् (अक०) प्राप्त करना, बांधना।
(सुद० २/१९) अतो जयकुमारस्य। (जयो० वृ० १/११) अत एव (अव्य) तो भी, फिर भी, इसलिए, इससे, इस प्रायमुदीक्ष्यतेऽतः। (सुद० पृ० ४०)
कारण, फलतः, हि। अत एव कियत्याः स राजा भूमेर्भवेत् अतसः (पुं०) [अत्+असच्] हवा, वायु। पतिः। (वीरो० १६/२९) अत एव अकी दु:खीभवन् पिना अतसी (स्त्री०) [अत्+असिच्+ङीप्] सन, पटसन, अलसी। की। (जयो० वृ० १/८)
अतानि (वि०) विस्तारित। (जयो० २३/३६) अतट (वि०) तंट रहित, खड़ी ढाल वाला, किनारे रहित। अति (वि०) [अत्+इ] अति का प्रयोग विशेषण या क्रिया अतटः (वि०) चट्टान।
विशेषण के रूप में होता है, जिसके कई अर्थ होते हैं। अतथा (अव्य) [नञ्+त्+था] ऐसा नहीं।
यह उपसर्ग रूप अव्यय है। अत्यन्त, बहुत, अधिक, अतद्गुणं (नपुं०) जहां शब्द प्रकृति नहीं, गुण नहीं, क्रिया विशेष, अतिशय, अत्यधिक। अतिबृद्धतयेव सन्निधि। (वीरो०
नहीं, ०एक अलंकार विशेष। न विद्यते शब्दप्रवृत्तिः यस्मिन् अत्यन्त वृद्ध होने से आने में असमर्थ है। "चतुर्दशत्वं वस्तुनि तद्वस्तु अतद्गुणम्।
गमितात्युदारैः" (जयो० १/१३) इसमें उदार से पूर्व 'अति' अतद्भावः (पुं०) द्रव्य रूपता का अभाव।
का प्रयोग है जिससे उत्कर्ष/विशाल/निर्दोषभाव का बोध अतद्रपः (पुं०) अंशी रहित। अनेक धर्मात्मक वस्तु में जिस कराया गया। "विनयो नयवत्येवाऽतिनये" (जयो० ७/४७)
समय जिस धर्म की विवक्षा की जाती है, उस समय वह यहां नय के साथ अति का प्रयोग शिष्टाचार की विशेषता वस्तु तद्रूप हो जाती है और शेष वस्तु अतद्रूप। अंशीह को प्रबल कर रहा है। तत्कः खलु यत्र दृष्टिः, शेषः समन्तात्, तदनन्य सृष्टि। 'पुष्टतमेऽतिसंरसात्' (वीरो० ७/३१) 'सरस' से पूर्व (जयो०२६/८८)
'अति' उपसर्ग विशालता को प्रकट कर रहा है अतन्त्र (वि०) विना रस्सी, तार रहित, लगाम विहीन।
अतिमव्वेऽप्यतिधार्मिका। (वीरो०७/३१) 'अतिधार्मिका' अतन्द्र (वि०) [नास्ति तन्द्रा यस्य] सतर्क, सावधान, अम्लान, का 'अति' महान्, अर्थ को प्रकट कर रहा है। जागृत।
पारोऽतलस्पर्शितयाऽत्युदारः (सुद० २/१६) इसमें प्रयुक्त अतर्क (वि०) तर्कहीन, युक्ति रहित।
'अति' का अर्थ स्पष्ट है। अतर्क (पुं०) तर्क अभाव, युक्ति अभाव।
अतिंतर (वि०) संलग्न, समाहित। श्रुतारामे तु तारा अतर्कित (वि०) अप्रत्याशित, चिन्तक विहीन।
मेऽप्यतितरामेतु सप्रीति। (सुद० वृ० ८२) अतर्क्स (वि०) निंद्य, निन्दयीय। (वीरो०१६/२६)
अतिकथा (स्त्री०) अतिरजित कथा, निरर्थक कथन, अतर्व्यवस्तु (वि०) निद्यवस्तु। (वीरो० १६/२६)
निष्प्रयोजन वचन। अतनु (नपुं०) विशाल, ०काम। (जयो० १६/१८) ०बहुत, | अतिकर्षणं (नपुं०) [अति कृष्+ल्युट] अधिक परिश्रम, बहुत भारी। विपुल।
उद्यम। अतनुज्वरं (नपुं०) कामज्वर, विशालज्वर। नतभु | अतिकश (वि.) [अतिक्रान्तः कशाम्] कोड़े न मानने वाला
तप्तास्यतनुज्वरेण। (जयो० १६/१८) अतनुज्वरेण कामज्वरेण घोड़ा। वा तप्तासि। (जयो० १६/१८)
अतिकाम (वि०) निरर्थक काम। अतर (वि०) अप्रसन्न, प्रसन्नता रहित। स कोकवत्किन्त्वि अतिकाय (वि०) [अत्युत्कटः कायो यस्य] भारी/विशाल/स्थूल तरस्त्व शोकः (सुद० १/१०)
शरीर वाला। अतल (वि०) तल रहित, अथाह, गहरा। (सुद० २/१६) अतिकोमल (वि०) मुदीयसी, अत्यधिक सरल। कलहंसतति:पारोऽतलस्पर्शितयाऽत्युदारः (सुद० २/१६)
सरिवृत्ति प्रतिवर्तिन्यतिकोमलकृतिः (जयो० १३/५७) अतलं (नपुं०) ०पाताल निम्नभाग, ०अधोभाग।
अतिकोमला-म्रदीयसी-बड़ी कोमल/स्वच्छ (जयो० वृ० अतस् (अव्य०) [इदम् तसिल] इसकी अपेक्षा इससे, तो १३/५७)
यहां से इस कारण से (समु ३/२, सुद० ए ५९) रज्यमानोऽत | अतिकृच्छ्र (वि०) [अत्युत्करः कृच्छ्र:] अति कठिन, बहुत इत्यत्र। (सुद० ४/८) सम्भावितोऽसः खलु निर्विकारः कष्टदायी।
For Private and Personal Use Only